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किसी व्यक्ति को जीवन का यह बोध है तो मैं कहना चाहूँगा कि हमारी मृत्यु, मृत्यु न हो । मृत्यु के लिए किसी को प्रयास करने की जरूरत भी नहीं है, ध्यान-योग साधने की जरूरत नहीं है। मृत्यु तो अपने आप हो जाएगी। शराब पी लो मृत्यु आनी शुरू हो जाएगी; सिगरेट का धुँआ छोड़ो, मृत्यु आने लग जायेगी; अफीम खाओ, बेमौत ही मरने लग जाओगे । अरे, मृत्यु को बुलाने के लिए कोई बहुत बड़े प्रयास की ज़रूरत नहीं है। जरूरत है तो 'निर्वाणशान्तम्' अवस्था को साधने की ज़रूरत है ।
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मृत्यु व्यक्ति की नहीं, काया की होनी चाहिए । व्यक्ति मरे नहीं । काया मर जाए, पर वो न मरे | यह है निर्वाणशान्तम् । वो दशा 'निर्वाणशान्तम्' की दशा कहलाती है, जब व्यक्ति जन्म-जन्मांतर के संस्कारों से चित्त के प्रवाहों से मुक्त हो जाए ।
जब-जब व्यक्ति अपनी प्रकृति को समझता है, जीवन की अनित्यताओं को समझता है, जीवन की अशरणभूत अवस्थाओं को समझता है, शरीर उससे भिन्न है यह सत्य समझता है, मैं अकेला आया हूँ और अकेला जाने वाला हूँ, जब कोई व्यक्ति इस मनोदशा को उपलब्ध करता है तभी किसी व्यक्ति की मोह-माया छूटती है । तभी व्यक्ति के भीतर पड़े हुए बन्ध- अनुबन्ध ढीले पड़ा करते हैं। ऐसा मत समझना कि आप घर-गृहस्थी में हैं इसलिए आप बँधे हुए हैं । अरे, महाराज बन जाओगे तब भी मुक्त होने की कौन- सी गारंटी है ?
संसार और संन्यास का फ़र्क़ वेश से नहीं है। संसार एक अवस्था है और संन्यास भी एक अवस्था है। संसार मूर्च्छा की अवस्था है । संन्यास सचेतनता की अवस्था है । संसार संन्यास में कोई बहुत बड़ा फर्क नहीं है । सारा फ़र्क़ अन्तर- दशा का ही है । संसार भी एक मानसिक वस्तु है और संन्यास भी एक मानसिक वस्तु है ।
एक प्रतीकात्मक शब्द लूँ - गधा। बड़ा बुरा शब्द है यह । किसी को कह दो तो मुश्किल खड़ी हो जाएगी। पहाड़ी पर बना हुआ यह जो साधनासभागार है, गधों के बलबूते ही बना है । गधों की पीठ पर पत्थर, सीमेंट, कांकरी लाई गई है। गधों के प्रति भी आप सकारात्मक, रचनात्मक नज़रिया
शांति पाने का सरल रास्ता
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