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स्वयं के द्वारा स्वयं को स्वयं में देखने की प्रक्रिया स्वच्छ ध्यान है। स्वयं से मुलाकात हो जाने का नाम ही आत्मयोग है । ध्यान अन्तर्यात्रा । वह भीतर का बोध कराता है। मन का हर संवेग वह सुनाता है । ध्यान के समय मन का भटकाव फिसलन नहीं है, अपितु अन्तरंग में दबे-जमे विचारों का प्रतिबिम्ब है। ध्यान अगर ऊपर-ऊपर होगा, तो वह ऊपर-ऊपर के विचार जतलाएगा। जो यह कहते हैं कि ध्यान के समय हमारा मन टिकता नहीं, वे ध्यान नहीं करते, वरन् ध्यान के नाम पर औपचारिकता निभा रहे हैं। ध्यान ज्यों-ज्यों गहरा होता जाएगा, त्यों-त्यों विचार भी गहरे होते जाएँगे। वे बड़े पके हुए और सधे हुए फल होंगे। समाधि के क्षणों में आने वाले विचार आत्म-ज्ञान की झंकार है। समाधिमय जीवन में उभरे विचार स्वयं की भागवत अभिव्यक्ति है। ।
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