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चित्त एक नहीं, अपितु अनेकता का जमघट है। यह एक समूह है, परमाणुओं का भरा-पूरा समाज है जितने दृश्य, उतने चित्त । जिस-जिस वस्तु को हम मजबूती से ग्रहण करेंगे हमारा चित्त उन सभी से जुड़कर बँटता बिखरता चला जाएगा। बँटते/बिखरते चित्त को वापस संकलित करना ही ध्यान है। जिन-जिनसे सम्बन्ध जुड़ा है उन-उनसे चित्त को हटाकर स्वयं में समाविष्ट करने की प्रक्रिया ही ध्यान है। दिन भर अपनी किरणों को आकाश में फैलाने वाले सूरज द्वारा सांझ ढलते ही अपने में समेटना ध्यान के तहत बाहर से भीतर आने की शैली है। यह सिकुड़ता नहीं है वरन् अपने अन्तरजीवन को अनुशासनबद्ध करना है। जो लोग इसमें ईमानदारी रखते हैं वे अपनी चित्त की ऊर्जा का आन्तरिक खेत-खलिहान में उपयोग कर लेते हैं । यह ध्यान वास्तव में विश्व को एक किनारे रखकर स्वयं का मूल्यांकन करना है।
दिन संसार है/रात उससे आँख मूंदना है। दिन में अपनी वृत्ति फैलाओ, ताकि जीवन की गतिविधियाँ ठप्प न हो जाए और सांझ पड़ते-पड़ते सूर्यकिरणों की तरह उनका संवरण कर लो। यही चित्त का फैलाव और संकोच है। यदि रात को स्वप्न-मुक्त निद्रा भी ली, तो भी वह चित्त की एकाग्रता ही है। ध्यान का काम स्वप्न-मुक्त/निर्विकल्प चित्त का प्रबन्ध है । जब किसी आसन पर बैठे बिना ही, बिना किये ध्यान हो जाय, तो ही वह जीवन का इंकलाब है। जब ध्यान अभ्यास और सिद्धान्त से ऊपर जीवन का अभिन्न अंग बन जाये, तभी वह अन्तरमन में परमात्मा के अधिष्ठान का निमित्त बनता है। "
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