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साधना का प्रथम चरण मन के चांचल्य को समझना है । मनोवृत्तियों को पहचानना और मन की गाँठों को खोजना आत्म-दर्शन की पूर्व भूमिका है।
| मनोवृत्तियों का पठन-अध्ययन अप्रमत्त चेता-पुरुष ही कर सकता. है ) एक ज्ञाने में अनेक का ज्ञान सम्भावित है। एक मनोवृत्ति को समग्रभाव से पढ़ने वाला वृत्तियों के सम्पूर्ण व्याकरण का अध्येता है । ( मन का द्रष्टा अपने अस्तित्व का पहरेदार है ।) द्रष्टाभाव/साक्षीभाव मन के कर्दम से उपरत होकर आत्म-गगन में प्रस्फुटित होने का प्रथम आयाम है ।
( मनोदीप की निष्कम्पता ही समत्वदर्शन है)। 'मैं' वर्तमान हूँ। अतीत और भविष्य में मेरा कम्पन सार्थक नहीं है। वर्तमान का अनुपश्यी ही मन की संशरणशील वृत्तियों का अनुप्रेक्षण कर सकता है। प्राप्त क्षण की प्रेक्षा करने वाला ही दीक्षित है। "
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