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मन का बिखराव बाहरी जगत के सौजन्य से होता है । इस बिखराव में चेतना दोहरा संघर्ष करती है। पहला संघर्ष चेतना के आदर्श और वासनामूलक पक्षों में होता है तथा दूसरा उस परिवेश के साथ होता है, जिसमें मनुष्य अपनी इच्छा/वासना की पूर्ति चाहता है। यह संघर्ष ही आत्म-ऊर्जा को विच्छिन और कुण्ठित करता है ।
मनुष्य अनेक चित्तवान है। इसलिए वह अनगिनत चित्तवृत्तियों का समुदाय है । इच्छा चित्तवृत्ति की ही सहेली है। इच्छाओं का भिक्षापात्र दुष्पूर है। इच्छापूर्ति के लिए की जाने वाली श्रम-साधना चलनी में जल भरने जैसी विचारणा है। चित्त के नाटक का पटाक्षेप चेतन्य की रोशनी का विमोचन है। ।
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