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संसार में हमारा कोई न तो मित्र है और न ही शत्रु। यहाँ सब स्वअस्तित्व के स्वामी हैं। जैसे आप एक हैं और अकेले हैं, वैसे ही सभी अकेले हैं। यहाँ सभी अजनबी हैं, अनजाने हैं। दुनिया दो-चार दिन का मेला है। मेले में जा रहे थे, किसी के हाथ में हाथ डाल दिया और दोस्ती कर ली। उसीसे कभी अनबनी हो गई तो दुश्मनी हो गई। दोस्त भी हमने ही बनाया, तो दुश्मन भी हमने ही बनाया। यों मैं ही दोस्त बन गया और मैं ही दुश्मन ।
मैत्री राग है और दुश्मनी द्वेष है। सत्य तो यह है कि द्वेष की जननी मैत्री ही है। बिना किसी को मित्र बनाए शत्रु बनाना असम्भव है। जिसे आप आज शत्रु कह रहे हैं, निश्चित रूप से वह कभी आपका मित्र रहा होगा। इसलिए जो लोग द्वेष के कांटे हटाना चाहते हैं, उन्हें राग के बीज हटाने जरूरी हैं। राग से उपरत होना निर्विकल्प भाव-दशा प्राप्त करने की सही पहल है।
अकेला आया हूँ, अकेला जाऊँगा-यह बोध ही पर्याप्त नहीं है। मैं अकेला हूँ-यह बोध रखना जीवन में वीतरागता को न्योता है। 'मैं केवल एक ही हूँ'-इसका ध्यान और ज्ञान ही अपने आप में 'कैवल्य' है। ।
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