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'शीत' अनुकूलता का परिचय-पत्र है, तो 'उष्ण' प्रतिकूलता का । अनुकूल और प्रतिकूल में साम्य-भाव रखना समत्वयोग है। शुक्ल और कृष्ण दोनों पक्षों में सूर्य की भाँति समरोशनी प्रसारित करने वाला ही महापथ का पथिक है।
साधक संसार में प्रिय और अप्रिय की विभाजन-रेखाएँ नहीं खींचता । दो आयामों के मध्य, बाये और दाये तट के बीच प्रवहणशील होना सरित्-जल का सन्तुलन है। दो में से एक का चयन करना सन्तुलितता का अतिक्रमण है। चयनवृत्ति मन की माँ है । समत्व चयन-रहित समदर्शिता है। चुनावरहित सजगता में मन का निर्माण नहीं होता। चयन-दृष्टि ही मन की निर्मात्री है । साधना का प्रथम चरण मन के चांचल्य को समझना है। मनोवृत्तियों को पहचानना और मन की गाँठों को खोजना आत्म-दर्शन की पूर्व भूमिका है। मन तो रोग है। रोग को समझना और उसका निदान पाना स्वास्थ्य-लाभ का सफल चरण है। ।
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