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जीवन में मुनित्व एवं गार्हस्थ्य दोनों का अंकुरण सम्भव है । मन की कसौटी पर गृहस्थ भी मुनि हो सकता है और मुनि भी गृहस्थ । ( तन-मन की सत्ता पर आत्म-आधिपत्य प्राप्त करना स्वराज्य की उपलब्धि है। कर्म-शत्रुओं को फँफेड़ने के लिए अहर्निश सन्नद्ध रहना आत्मशास्ता का दायित्व है.
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साधक को सदा उसे खोजना चाहिये, जो संसार - सरिता के सतत बहाव के बीच में भी स्थिर है। संसार तो नदी - नाव का संयोग हैं। अतः निस्संगसाधक के लिए संग उसी का उपादेय है, जिसे मृत्यु न चूम सके । संसार से महाभिनिष्क्रमण / महातिक्रमण करने वाला सिद्धों की ज्योति विकसित कर सकता है)
अभिनिष्क्रमण वैराग्य की अभिव्यक्ति है । ( वैराग्य राग का विलोम नहीं, अपितु राग से मुक्ति है ) वैराग्य पथ पर कदम वर्धमान होने के बाद संसार का आकर्षण दमित राग का प्रकटन है । यदि संसार के राग-पाषाणों पर वैराग्य की सतत जल-धार गिरती रहे तो कठोर से कठोर चट्टान को भी चकनाचूर किया जा सकता है ।
( वान्त संसार साधक का अतीत है और अतीत का स्मरण मन का उपद्रव है !) अपने अस्तित्व में निवास करना ही आस्तिकता है साधक ज्यों-ज्यों सूर्य बन तपेगा, त्यों-त्यों मुक्ति की पंखुरियों के द्वार उद्घाटित होते चले जाएँगे ।
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