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कजल/धवल देह के भीतर पालखी मारे जमा है एक जीवन-साधक । उसे पहचानना ही जीवन की सच्चाइयों को भोगना है। वहाँ बिन बादल बरसात होती है, बिन टकराहट बिजली चमकती है । मूक है वहाँ भाषा/ भाषण । अनुभव के झरने में आवाज नहीं, मात्र अमृत स्नान होता है।
यह भीतर की प्रस्तावना है। शब्द-शरीर से ऊपर उठी अर्थ की चेतना ही वहाँ सदाबहार बुलाती है । अर्थ शब्द में नहीं, स्वयं के ज्ञान-तन्तुओं के रिश्ते में है। शब्द होठों की वाचालता है, किताबों की मचलती अंगुलियाँ हैं । किताबों को बाँच लेना ही अध्ययन है। स्वाध्याय का ताज उसके सिर पर कहाँ?) अध्ययन शब्दों का होता है, अर्थ स्वाध्याय से उभरता है)। अधीत शब्दों को स्वयं में खोजना और जीना ही स्वाध्याय की आत्मकथा है । बाँचना और घोखना अध्ययन है । पर स्वाध्याय तो अन्तःशोध का एक स्वाध्याय-शून्य सशक्त माध्यम है। अध्ययन का सारा अभिक्रम फीका है ) बिना स्वाध्याय किये संसार से विदाई लेना नपुंसकता की पौरुष को चुनौती है। 0
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