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जीवन की आपाधापी में मनुष्य जब तक व्यस्त रहता है, उसे मृत्यु की पदचाप सुनाई नहीं देती । संन्यास की परिणति मृत्यु की प्रतीति से होती है। संन्यास जीवन - क्रान्ति है । निवृत्ति इसी का उपनाम है । वृत्ति संसार से जुड़ना है और निवृत्ति संसार से बिछुड़ना । वृत्ति जीवन-ऊर्जा की बहियत्रा है । निवृत्ति उस यात्रा में रुकावट है । ऊर्जा को बाहर जाने से रोकने का नाम ही निवृत्ति है । इसलिए वृत्ति संसार से राग है और निवृत्ति संसार से विराग । परावृत्ति वृत्ति से ही परे होना है । यह संसार का विराग नहीं है, बल्कि अपने भीतर लौटना है ।
निवृत्ति संसार को त्यागना है और परावृत्ति स्वयं को सम्हालना । संसार को त्यागने से ही स्वयं को सम्हाला नहीं जा सकता । पर हाँ ! स्वयं को सम्हालने से संसार अपने आप छूट जाता है । इसलिए परावृत्ति जीवन की आन्तरिक ऊँचाई को पाने की स्वीकृति है । निवृत्ति सही अर्थों में परावृत्ति के बाद ही घटित होती है । संन्यास की शुरुआत परावृत्ति से होती है ।
साधक का सारा लक्ष्य वीतराग से जुड़ा हुआ है । परावृत्ति और वीतराग दोनों को एक ही समझें। भले ही लगे दोनों अलग-अलग, पर हैं दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू ।
| साधना की वास्तविकता वीतराग - विज्ञान है । राग, संसार से जुड़ना है और विराग उससे टूटना । वीतराग तो स्वयं की शोध यात्रा है ( अपने आपको पूर्णता देना ही बीतराग का परिणाम है )
से ही पार है । यह दोनों से इसी में है । यह परम पद है । उठापटक नहीं है ।
राग संसार है और विराग संन्यास । वीतराग राग और विराग दोनों ईश्वर का सारा ऐश्वर्य को लेकर राजनैतिक
ऊपर की स्थिति है । ऐसा पद है, जहाँ पद
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