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________________ साधुता दूसरों का मौन-धन्यवाद पाने का उपक्रम है ।) जीवन में साधुता इतनी निखर जाये कि उसकी मौजूदगी प्रभाव बने और अनुपस्थिति मरघट-वीरान लगाए। जिस गली से गुजरो, अगर वहाँ कई हाथ-आँखें धन्यवाद कहती हुई कृतज्ञ न हो जाये, तो गली से गुजरना न-गुजरना समान है। मानव में दानवता/असाधुता में हो, यह शुभ है, किन्तु मानवता हो, यह उसकी विशेषता हो। फूल का दुरभिभरा न होना ही पर्याप्त नहीं है। सुरभि की छटा आकर्षण के लिए आवश्यक है। इस सुरभि का ही दूसरा नाम साधुता है। | साधता जीवन के परमार्थ का उपनाम है। स्वयं पर आने वाले कष्टों से पिघलना स्वार्थ है, पर दूसरों पर आए हुए कष्टों को देखकर द्रवित होना परमार्थ है। साध इस परमार्थ का पर्याय है। जिन्होंने अपने आपको यह दर्जा दिया है, वे सब साध | सजन/गुणसाधक/संत हैं। सिद्धत्व में प्रवेश करने के लिए ऐसा संत जीवन प्रथम सोपान है। साधु-पुरुषों को किया जाने वाला नमन विश्व की समस्त अच्छाइयों का सार्वभौम सम्मान है [ २४ ] Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003958
Book TitleMain to tere Pas Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1990
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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