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'सम्यक्त्व' साधुता और ध्रुवता की दिव्य आभा है। सम्यक्त्व और साधुता के मध्य कोई द्वैत-रेखा नहीं है। साधु सम्यक्त्व के बल पर ही तो संसार की चार-दिवारी को लाँघता है। इसलिए सम्यक्त्व साधु के लिए सर्वोपरी है।
सम्यक्त्व आत्म-विकास की प्राथमिक कक्षा है। वस्तु-स्वरूप के बोध का नाम सम्यक्त्व है। बिना सम्यक्त्व के साधक वस्तु-मात्र की अस्मिता का सम्मान कैसे करेगा ? पदार्थों का श्रद्धान कैसे किलकारियाँ भर सकेगा ? अहिंसा और करुणा कैसे संजीवित हो पायेगी ? अध्यात्म की स्नातकोत्तर सफलताओं को अर्जित करने के लिए सम्यक्त्व की कक्षा में प्रवेश लेना अपरिहार्य है।
साधक की सबसे बड़ी सम्पदा सम्यक्त्व ही है। आत्म-समीक्षा के वातावरण में इसका पल्लवन होता है । सम्यक्त्व अन्तदृष्टि है। इसका विमोचन बहिष्टियों को संतुलित मार्गदर्शन है। फिर वे सत्य का आग्रह नहीं करतीं, अपितु सत्य का ग्रहण करती हैं। माटी-सोना, हर्ष-विषाद के तमाम द्वन्द्वों से वे उपरत हो जाती हैं। इसी से प्रवर्तित होती है सत्य की शोध-यात्रा । बिना सम्यक्त्व के अध्यात्म-मार्ग की शोभा कहाँ ! भला, ज्वर थामे पुरुष को माधयं कभी रसास्वादित कर सकता है ? असम्यक्त्व/मिथ्यात्व जीवन का ज्वर नहीं तो और क्या है ? सचमुच, जिसके हाथ में सम्यक्त्व की मशाल है, उसके सारे पथ ज्योतिर्मय हो जाते हैं। ।
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