________________
'सम्यक्त्व' अध्यात्म-दर्शन की वर्णमाला का प्रथम अक्षर है । यही सत्य की शाश्वत अभिव्यक्ति है । यह वह चौराहा है, जिसमें अध्यात्म- जगत के कई राज मार्ग मिलते हैं । अतः सम्यक्त्व के लिए पराक्रम करना महापथ का अनुगमन / अनुमोदन है ।
सम्यक्त्व विशेषणों का विशेषण है, आभूषणों का भी आभूषण है । यह सत्य की गवेषणा है । साधक आत्म- गवेषी है । आत्मा ही उसके लिए परम सत्य है । इसलिए सम्यक्त्व साधक का सच्चा व्यक्तित्व है । उसकी आँखों में सदा अमरता की रोशनी रहती है । कालजयी क्षणों में जीने के लिए उसका जीवन समर्पित है। कालजयत्ता के लिए अस्तित्व का अभिज्ञान अनिवार्य है । अस्तित्व शाश्वत का घरेलु नाम है । सम्यक्त्व उस शाश्वत की ही पहिचान है ।
अस्तित्व का समग्र व्यक्तित्व सम्यक्त्व की खुली खिड़की से ही समीक्ष्य है । अध्यात्म का अध्येता सम्यक्त्व से अपरिचित रहे, यह संभव नहीं है । व्यक्ति के सुषुप्त विवेक में हरकत पैदा करने वाला एक मात्र सम्यक्त्व ही है । यथार्थता का तट, सम्यक्त्व का द्वीप मिथ्यात्व के पार है । हृदय-शुद्धि, अहिंसा, संवर, कषाय - निग्रह एवं संयम की पतवारों के सहारे असद् - सागर को पार किया जा सकता है ।
Jain Education International
[ २१ ]
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org