________________
। अध्यात्म आत्म-उपलब्धि का अनुष्ठान है। अनुष्ठाता को स्वयं का दीपक स्वयं को ही बनना पड़ता है। 'स्वयं' 'अन्य' का ही एक अंग है। अतः दूसरों में स्वयं की और स्वयं में दूसरों की प्रतिध्वनि सुनना अस्तित्व का अभिनन्दन है। दूसरों में स्वयं का अवलोकन ही अहिंसा का विज्ञान है। सम्पूर्ण अस्तित्व का अन्तर्सम्बन्ध है। क्षुद्र से क्षुद्र जीव में भी हमारी जैसी आत्मचेतना है । अतः किसी को दुःख पहुँचाना स्वयं के लिए दुःख का निर्माण करना है। सुख का वितरण करना अपने लिए सुख का निमंत्रण है। जीव का वध अपना ही वध है । जीव की करुणा अपनी ही करुणा है । अतः अहिंसा का अनुपालन स्वयं का संरक्षण है ।
मनुष्य स्वभाव से विकृति-प्रेमी होता है। अच्छे शब्द और अच्छे कर्म उसे सीखने पड़ते हैं। अपने व्यक्तित्व में अच्छाइयों को प्रतिष्ठित करना ही जीवन की उज्ज्वल साधना है।
एकान्त में किया गया अपराध या पाप भी व्यक्ति के लिए उतना ही अहितकर है जितना छुपकर किया हुआ विषपान । ।
[ २० ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org