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अहिंसा और निर्विकारिता का नाम ही अध्यात्म है । साधक अध्यात्म का अध्येता होता है । अतः हिंसा और विकारों से उसकी कैसी मैत्री ! विकार/ वासना / भोग सम्भोग स्वयं की अ-ज्ञान दशा है । साधक तो 'आगमचक्षु / ज्ञानचक्षु' कहा जाता है, अतः इनका अनुगमन अन्धत्व का समर्थन है ।
साधक का परिचय पत्र जुड़वा हैं । मूर्च्छा परिग्रह है । हिंसा का स्वामी है । अतः आराधना है ।
( मूर्च्छा एक अन्धा मोह है । वह अनात्म को आत्मतत्त्व के स्तर पर ग्रहण करता है । यह मिथ्यात्व का मंचन है ।
आत्मतत्त्व और अनात्म
अप्रमाद ही है । अप्रमाद और अपरिग्रह दोनों मूर्च्छा का ही दूसरा नाम प्रमाद है । प्रमाद मूर्च्छा से उपरत होना अध्यात्म की सही
तत्त्व का मिलन विजातीयों का संगम है। दोनों में विभाजन - रेखा खींचना
ही भेद-विज्ञान है।)
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