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जिंदगी चेतना की उलझी हुई पहेली है। जहाँ-जहाँ जिन्दगी है, वहाँवहाँ चेतना है। जहाँ-जहाँ चेतना है, वहाँ-वहाँ समभाव की परछाई उभरती हुई दिखाई देती है। जिन्दगी की यह माँग है कि वह विक्षोभों से दूर रहे और साम्य-स्थिति को गले लगाए। विक्षोभ हमेशा आक्रोश, क्रोध, वध, उत्तेजना और संवेदना के कारण जनमता है। मानव तो क्या एक कीड़ामकोड़ा भी स्वयं को साम्यावस्था में बनाए रखने की चेष्टा करता है।
न केवल चेतनामूलक जीवन, बल्कि स्नायुओं में भी साम्य दशा जरूरी है। चेतना और स्नायु का काम भीतरी तनाव को कम कर साम्य-दशा के लिए श्रम करना है। आन्तरिक विक्षोभों, उत्तेजनाओं और संवेदनाओं को शान्त करना तथा समत्व को मन में प्रतिष्ठित करना जीवन का बसन्त है। ।
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