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पर्यावरण अस्तित्व का अपर नाम है। प्रकृति उसका अभिन्न अङ्ग है। उस पर मँडराने वाले खतरे के बादल हमारे ऊपर बिजली का कौंधना है । इसलिए उसका पल्लवन या भंगुरण समग्र अस्तित्व को प्रभावित करता है।
प्रकृति, पर्यावरण और समाज सभी एक-दूसरे के लिए हैं। इनके अस्तित्व को बनाये रखने के लिए किया जाने वाला श्रमदान स्वयं के जीवन को भयमुक्त करने का पुनीत अभियान है।
पर्यावरण का रक्षण अहिंसा का जीवन्त आचरण है। हमारे किसी क्रियाकलाप से उसे क्षति पहुँचती है, तो वह आत्म-क्षति ही है। सभी जीव सुख के अभिलाषी हैं। भला, अपने अस्तित्व की जड़े कौन उखड़वाना चाहेगा ? अहिंसा ही माध्यम है, पर्यावरण के संरक्षण एवं पल्लवन का।
पर्यावरण का अस्तित्व स्वस्थ एवं संतुलित रहे, इसके लिए साधक का जागृत और समर्पित रहना साध्य की ओर चार कदम बढ़ाना है। दूसरों का छेदन-भेदन-हनन न करके अपनी कषायों को जज रित कर हिंसा-मुक्त आचरण करना साधक का धर्म है। इसलिए अहिंसक व्यक्ति पर्यावरण का सजग प्रहरी है।
पर्यावरण और अहिंसा की पारस्परिक मैत्री है। इन दोनों का अलगअलग अस्तित्व नहीं है, सहअस्तित्व है। हिंसा का अधिकाधिक न्यूनीकरण ही स्वस्थ समाज की संरचना में स्थायी कदम है। भाईचारे का आदर्श मनुष्येत्तर पेड़-पौधों के साथ स्थापित करना अहिंसा/साधना की आत्मीय प्रगाढ़ता है। "
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