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________________ है। मैंने ऐसे लोगों को अपने प्रणाम समर्पित किए हैं जिनके भीतर सरलता, विनम्रता और उदारता का देवत्व अधिष्ठित है। ध्यान रखें, भगवान किसी पत्थर की मूर्तिभर में नहीं होते । उनका जब भी दीदार किया है, तब-तब या तो वह अपने अन्तर्मन में दिखाई दिये हैं या उन लोगों के भीतर जिनके जीवन में शांति और सहृदयता का निवास है । मैं प्रतिमा को प्रणाम करता हूँ ठीक उसी भाव के साथ जिस भाव से आप सबको भी प्रभु की मूरत मानते हुए अभिवादन समर्पित करता हूँ । जितनी सुहावनी मूर्ति मुझे किसी मंदिर में बैठी हुई लगती है, आप लोग क्या उससे कम सुहावनी मूर्तियाँ हैं? क्या किसी पौधे पर खिला हुआ गुलाब का फूल प्रभु की ही छवि नहीं है? क्या हमारे घर में इठला रहा बालक कान्ह-कन्हैया का स्वरूप नहीं है ? देवता आसमान में नहीं, इंसान की नजरों में निवास करते हैं। वे नजरों में रहने वाली रोशनी में निवास करते हैं। उन नजरों के ठेठ भीतर जहाँ नजरों को प्रभावित करने वाले विचार होते हैं, उनमें प्रेत और देव रहते हैं, स्वर्ग और नरक रहा करते है । बहुधा मुझे किसी के जीवन से जुड़ी हुई एक कहानी का वह अंश याद आया करता है कि एक व्यक्ति ने अपने जीवन में संन्यास ले लिया, वह तपस्या में लीन हो गया, उसने जंगलवास ग्रहण कर लिया । उसने अर्द्धनग्न अवस्था में किसी पेड़ की छाया के नीचे अपने आपको तपाना शुरू कर दिया। आदमी था अपने जमाने की लंबी-चौड़ी पहुँच रखने वाली हस्ती का । ध्यान में बैठा आदमी और ऐसे क्षणों में जब उस व्यक्ति के गुरु के सामने यह प्रश्न खड़ा किया गया कि 'भंते! जिन क्षणों में मैं उस साधक के करीब से गुजरा था, उस समय उस साध् क की मृत्यु हो जाती तो साधक की कौन-सी गति होती?” गुरु ने मुस्कुराकर कहा, 'वत्स! यह आदमी का मन है । पशु के मन की तो सीमा होती है क्योंकि पशु अपनी पशुता से ज्यादा नहीं गिर सकता । देवता के मन की भी सीमा होती है क्योंकि वह अपने ६८ Jain Education International For Personal & Private Use Only कैसे जिएँ मधुर जीवन www.jainelibrary.org
SR No.003896
Book TitleKaise Jiye Madhur Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2009
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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