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इस दुनिया में कोई भी किसी को सुधार नहीं पाता है। आदमी जब भी सुधरेगा, अपने संकल्प से सुधरेगा, अपने बोध से सुधरेगा। आदमी जब भी जगेगा, जीवन में लगने वाली ठोकर के बोध से जगेगा। बाकी जीवन तो क्या, मौत भी किसी को नहीं जगा पाती है। यों तो आपने अपने जीवन में कोई पचास मुर्दे तो जला दिए होंगे। कभी कोई काका, कोई दादा, कोई पड़ौसी, कोई मौहल्ले वाला गया होगा, पर कितने आदमी जग पाए हैं? कितने आदमी सुधर पाए हैं? कितनों को जीवन का बोध हो पाया है? जो आदमी अपनी आँखों से अर्थी को गुजरते हुए देख ले, फिर भी अगर जीवन का अर्थ न समझ पाए तो उसका जीना ही निरर्थक है। ठोकर ही आदमी को सुधारती है। हम ठोकर के अहसानमंद हैं, जो निष्ठुर को भी सहृदय बना देती है, बूढ़े को भी अनुभवी बना देती है।
इक बार गिरकर मैंने सँभलना सीखा, इक बार फिसलकर मैंने चलना सीखा। इक बार धोखा खाकर मैंने परखना सीखा,
इस तरह ज़माने से ही मैंने, ज़माने से लड़ना सीखा।। नसीहत लो, तो जीवन का हर अनुभव आपको कुछ-न-कुछ देता ही है। न लेना चाहो, तो श्मशान की सौ यात्रा भी नश्वरता का बोध नहीं दे पाती।
मनुष्य जो संसार के राग-रंग में रचा-बसा है, उसके जीवन में बोध कहाँ, जागृत दृष्टि कहाँ? आदमी मूछित है, अंधेरा बहुत सघन है। इतना सघन अंधकार है कि सौ-सौ दीये उतर कर भी उस अंधकार को काट नहीं पा रहे हैं। आवरण पर आवरण चढ़े हैं। सौ-सौ दीये निश्चित ही अंधेरे को दूर करेंगे, पर अगर दीवार के पार भी अंधेरा हो तो उस तक दीया कैसे पहुँचे? उतारने होंगे व्यक्ति को अपने ही पर्दे । जन्म-जन्मान्तर से जमाये जा रहे अपने ही पर्दो को उतारना होगा और जिन-जिन के प्रति अपने अन्तर्हृदय में द्वेष है,
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कैसे जिएँ मधुर जीवन
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