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दिए जाते, और सुबह उठते ही हम पहले माता-पिता को प्रणाम करते। जैसे ही पाँचों भाई उन्हें पहले प्रणाम करते कि बड़े भाई अब माँ-बाप के पास खड़े हो जाते। हम चार भाई फिर उन बड़े भाई को प्रणाम करते। उनको प्रणाम होता तो दूसरे नम्बर वाले भाई खड़े हो जाते और बाकी के तीन भाई उनको प्रणाम करते। फर्क कितना? किसी में डेढ़ साल का, किसी में दो साल का । कोई ज्यादा फर्क वाली भी बात नहीं होती। फिर तीसरे नम्बर वाला, फिर दूसरे नम्बर वाला, फिर अन्तिम नम्बर वाला, सब खड़े होते जाते । फिर जो भतीजे होते, वे भतीजे भी एक-दूसरे को इसी तरह प्रणाम करना शुरू कर देते । बताऊँ इसका परिणाम क्या हुआ ?
इसका परिणाम यह हुआ है कि हमें आज संत - जीवन लिए हुए करीब पच्चीस साल हो गए हैं, पर हमारे मुँह से निकला हुआ हर शब्द घर के लिए पत्थर की लकीर हुआ करता है । हमें उनसे किसी काम को करवाने के लिए पूछना नहीं पड़ता । हम करते हैं और उनको कहते हैं। ठीक इसी कदर, हम संत - जीवन में भी हैं, लेकिन उनके द्वारा कही गई बात हमारे लिए उतनी ही मान्य होती है जितनी पहले होती थी । किसी ने कुछ कहा तो हम उसमें मीन - मेख नहीं निकालते । घर के किसी एक सदस्य ने भी अगर निर्णय ले लिया है तो शेष सदस्य उसका अनुमोदन ही करेंगे। कोई उसमें नुक्ता - चीनी नहीं निकालेगा ।
घर के हर सदस्य को घर का हर कार्य करने का अधिकार है । अगर नुक्सान होगा तो स्वयं उसे अहसास हो जाएगा और वह दुबारा उस गलती को करने के लिए प्रेरित नहीं होगा । यदि बात-बात में नुक्ता-चीनी निकालते रहेंगे तो भाई-भाई में टकराहट हो जाएगी । पैसे को लेकर कभी भाई-भाई अलग नहीं होते, जमीन-जायदाद को लेकर भी अलग नहीं होते जबकि छोटी-छोटी बातों को न पचा पाने के कारण ही भाई-भाई अलग होते हैं। एक ही पिता का खून आपस में बँट जाया करता है। अच्छा है, अगर सुबह उठकर तुम अपने पूज्यजनों को धोक लगाते हो। भले ही
ऐसे जिएँ मधुर जीवन
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