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जाकर आप फूल नहीं, अपने हृदय के आँसू चढ़ाओ।
'हे प्रभु! मैं हर रूप में प्रयास करके भी जिन पापों को न काट सका, उन पापों को काटने के लिए मैं तुम्हारी शरण में हूँ। मेरी
औकात नहीं इनसे मुक्त होने की। ध्यान भी किया, योग भी किया, प्रतिक्रमण, पूजा-पाठ, प्रार्थना, नमाज़ वगैरह सभी कुछ कर लिए पर, मैं अपने पापों और अपने विकारों से मुक्त नहीं हो पाया। इसलिए मैं आपकी शरण में हूँ, ताकि आप मुझे मेरे पापों से मुक्त कर सकें। आप क्षमाशील हैं, आप दयालु हैं, आप पापों को दूर करने में समर्थ हैं। आप पतितों के पापों को धोने में समर्थ हैं।' इस प्रकार के भावों को लेकर प्रभु के दरबार में जाओ और उसे अपने पापो को चढ़ाओ। शेष तो क्या है हमारे पास चढ़ाने के लिए? सब कुछ उसका ही दिया हुआ है। हम क्या चढ़ाएँगे, हमारी औकात ही क्या है? ___ हम जाते है मंदिर में और जाकर दो दीप जला देते हैं। अरे भाई किसके लिए जला रहे हो? भगवान के घर में क्या अंधेरा है जो तुम दीप जला रहे हो? हम क्या उसके घर के लिए दीप रोशन करेंगे जिससे तीनों लोक प्रकाशित हैं। हम उसके सामने दो दीप जला भी दें या न भी जलाएँ तो इससे क्या फर्क पड़ेगा? हम माटी के दीप इस भाव से जलाया करते हैं कि 'हे प्रभु! जिस प्रकार यह तुच्छ माटी का दिया ज्यातिर्मय होने की सामर्थ्य अपने भीतर जुटा चुका है। हे प्रभु! इसी भाव से मैं यह दीप चढ़ा रहा हूँ ताकि मेरा अपना जीवन भी माटी के इस दीप की तरह रोशन और ज्योतिर्मय हो'। भगवान के आगे दीप जलाओ तो अहंकार न कर बैठो। उसके आगे तो कुदरती दो दीप जल रहे हैं एक सूरज और दूसरा चन्द्रमा। इन दो दीयों के सामने हमारे दीये की क्या औकात! हम तो दीप जलाकर सूरज और चाँद की ही आरती उतार रहे हैं। हमारी पूजा तो दीपक से सूरज की पूजा है, गंगाजल से सागर की पूजा है।
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कैसे जिएँ मधुर जीवन
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