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चरैवेति-चरैवेति
१३१ के समय भी लोग मूर्छा में औंधे सोये पड़े थे । महावीर व बुद्ध के समय में भी सारे लोगों की मूर्छा नहीं टूटी थी । मूर्छा तो आज भी है । मूर्छा टूटना ही चैतन्य-जगत-के-द्वारों-का-उद्घाटन है | कलि और कृत- ये वास्तव में समय के चरण नहीं हैं । ये चरण तो चेतना के हैं।
जिन्होंने अपने समय को त्रेता और सत् कहा, उन्होंने कोई गलत नहीं कहा । क्योंकि उनके लिए तो वे स्वयं कृत थे, तो उनका युग उनके लिए कृत-युग ही होगा। यह आधार तो जीवन-दृष्टि के मूल्यांकन पर है। यह देश भी कभी सोने-की-चिड़िया, रत्नों-की-खान कहलाया करता था । पता नहीं वह सोने की चिड़िया कब रहा ! जिस देश में नरमेघ-यज्ञ होते थे, स्त्रियों को बाजार-की-चौखट पर सरे-आम बेचा जाता था, गरीबों को गुलाम बने रहने पर मजबूर होना पड़ता था, वहाँ स्वर्ण-युग आया ही कब ? युग का आदर्श तो अब आएगा । देख नहीं रहे हो युद्ध के खिलाफ बोलते लोगों को, मृत्यु-दण्ड के विरोध में उभरते स्वरों को । अब तो गुलामों को भी स्वतन्त्रता के दिन देखने को मिल रहे हैं । नारी-कल्याण वर्ष मनाए जा रहे हैं । पर तब ? जहाँ दरिद्रता और गुलामी चरम सीमा पर हो, वहां अपने आपको सोने-की-चिड़िया कहना मात्र अपने खून रिसते घावों को माटी से ढ़कना है।
अच्छे-बुरे, सोये-जागे लोग तो समय के हर धरातल पर होते रहते हैं । यदि तुम भी अपनी नींद को झाड़ दो, आँख खोल लो, तो तुम भी कलि से द्वापर बन जाओगे । उठ बैठो तो त्रेता और चल पड़ो तो स्वर्ण/कृत । अमृत-पुरुष वह है, जो पहुँच चुका है।
कहते हैं श्रीकृष्ण ने कलि-दमन किया । कलि वास्तव में प्रतीक है निद्रा का । पता नहीं कितने लोग कलि की पूँछ की चपेट में आ जाते हैं । किन्तु वे लोग अमृत-पुरुष कहलाते हैं, जो उसकी पूंछ से उसके नथूनों को बींध डालते हैं । जो कलि की पूँछ के नीचे दबे पड़े हैं, वे मूर्छा में अधमरे पड़े हैं, और वे दबे पड़े हैं कलि के भार से । जो मूर्छा से जगकर चैतन्य-जीवन की ओर चल पड़े हैं, वे कलि के शीष पर हैं, कलि उनके पाँव तले । ऐसे पुरुष सतयुग में जीते हैं और महा-मानव की संज्ञा पाकर अमृत-पुरुष हो जाते हैं । जैसे कृष्ण कलि को बीधंकर उसके सिर पर नृत्य करते हैं, ऐसा ही जीवन में आनन्द-उत्सव होता है । जो 'चरैवेति-चरैवेति' को तहेदिल से स्वीकार कर लेता है, वही स्वर्णिम
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