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चलें, मन-के-पार
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सवेरे का साक्षात्कार करता है । अपनी खोज जारी रखो । पहाड़ों के पार भी पहाड़ सम्भावित है | मंजिल गंतव्यपूर्ण यात्रा है । आखिर उस बिन्दु तक पहुँच जाओगे, जो जीवन का मूल संचार केन्द्र है ।
आम-आदमी औसतन मूर्च्छित है । मुर्च्छा जितनी प्रगाढ़ होगी, धर्म का माधुर्य उतना ही फीका लगेगा, जितना बुखार में मीठा । वे लोग मूर्च्छित हैं, जो नहीं जानते कि वे कौन हैं, क्यों हैं, किसलिए हैं ? कहाँ से आये हैं, कहाँ जा रहे हैं, उनका स्वभाव क्या है ? जिन्हें यह सब जानने के लिए अभीप्सा नहीं है, वे मूर्च्छित हैं । स्वयं के बारे में कौन जानना चाहता है ? लोगों ने ज्ञान का सम्बन्ध तो दूसरों के साथ जोड़ रखा है । हर व्यक्ति दूसरों को जानना चाहता है ।
भले ही कोई सन्तुष्ट हो जाये कि मैंने अमुक-अमुक को जान लिया है, उसका ज्ञान दिशाभूला है । मुखौटों को पहचानने में ही जब मुश्किल हो रही है, तो जीवन का अन्तःस्थल जानना तो बहुत दूर की बात है ।
करीब दो हजार वर्ष पुरानी एक बहुमूल्य पुस्तक है ' आयारो' । यह शास्त्रों का - शास्त्र है । इसकी शुरुआत ही मूर्च्छा-बोध और जागरण- सन्देश से हुई है । मूर्च्छित उसी को बताया गया है, जो नहीं जानता कि मैं कहाँ से आया हूँ, मुझे कहाँ जाना है, मेरा स्वभाव, मेरा जीवन-स्रोत क्या है ! अपने प्रयत्नों से या किसी सद्गुरु के सतत् सम्पर्क से यह मूर्च्छा तोड़ी जा सकती है । मूर्च्छा का टूटना ही जागना है ।
ध्यान मूर्च्छा से अपनी आँख खोलने के लिए है । किसी सद्गुरु के प्रयास से या जीवन में लगने वाले किसी आघात से मूर्च्छा टूट जाये, तो अलग बात है, किन्तु अपने प्रयासों से मूर्च्छा को तोड़ने के लिए ध्यान सबसे बेहतरीन कारगर उपाय है । तुम मूर्छित हो या जागृत, इस चिन्ता को छोड़ दो । सिर्फ ध्यान में डूबो । ध्यान मूर्च्छा से जागरण की क्रान्ति है । ध्यान में गोताखोरी करने वाला ही मूर्च्छा को समझता है । मूर्च्छा के चलते ही तो मनुष्य ने अपनी खोपड़ी को कूड़ादान बना रखा है । मस्तिष्क कचरा एकत्र करने की पेटी नहीं है । वह बुद्धि और ज्ञान का आधार है । सत् और असत्, मर्त्य और अमर्त्य के बीच भेद समझने के लिए है यह । पथ और विपथ का निर्णय इसी के जरिये होता
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