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चरैवेति-चरैवेति
चेतना के कई चरण हैं । कुछ ऐसे, जो सो रहे हैं । कुछ ऐसे हैं, जो जगे हैं । कुछ उठ बैठे हैं । कुछ ऐसे हैं, जो चल पड़े हैं ।
जो सो रहा है, वह कलि है । निद्रा से उठ बैठने वाला द्वापर है । उठ कर खड़ा हो जाने वाला त्रेता है, लेकिन जो चल पड़ता है, वह कृत है, सत् है, स्वर्ण-पुरुष है । चरैवेति-चरैवेति- इसलिए चलते रहो, निरन्तर सक्रिय रहो ।
कलिः शयानोभवति, संजिहानस्तु द्वापरः । उत्तिष्ठनेता भवति, कृतं संपद्यते चरन् ।
जो सो रहा है, वह कलि है । सोने का अर्थ है मूर्छा में पड़े रहना । कलि का सम्बन्ध बुरे समय से नहीं है, मूर्छित मानसिकता से है । कलियुग आज भी है, हजारों वर्ष पूर्व भी था । मनुष्य के मन पर जब तक मूर्छा का कोहरा छाया रहेगा, तब तक वह कलि ही रहेगा, कलियुग में ही जीता रहेगा | अतीत के इतिहास में अभी तक ऐसा मौका नहीं आया, जब सबके लिए कलियुग हो या सबके लिए सतयुग । कलियुग अब भी है, तब भी था । सतयुग- तब भी था, अब भी है । विश्व के ग्लोब पर रंग करने की दरकार है, पर वह कभी रंगा हुआ था, फिर रंग उड़ गया, इसलिए नहीं । रंग कभी पूरा हुआ ही नहीं, तो उसके उड़ने, घिसने या पुराना पड़ने का सवाल ही कहाँ आता है ।
समय के हर धरातल पर कलि और स्वर्ण होते रहे हैं । जो मूर्छा-मुक्त हुए, जागे, बढ़े, चैतन्य केन्द्रित हुए, वे स्वर्ण-पुरुष हुए । मूर्छा और मुक्तिदोनों की सम्भावना सदा-सदैव रही है और रहेगी भी | ऋषभ, शिव और मनु
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