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________________ चन्द्रयश के मन में एकाएक थोड़ी देर में विचार हुआ कि मुझे साधु बना दिए जाने का समाचार सुनकर मेरे परिवार वाले क्रोधित होंगे तथा आचार्यश्री को तंग करेंगे। ऐसा सोचकर उसने आचार्य से विनम्र शब्दों में कहा कि हम यहाँ से अभी विहार कर दें तो अधिक उचित होगा। आचार्यश्री ने क्रोधावेश में कहा- तुम्हें दिखाई नहीं देता है मैं चल नहीं सकता हूँ। शिष्य ने कहा – मैं आपको कंधों पर ले चलूँगा। यह सुनकर आचार्य श्री चलने को तैयार हो गए। शाम का समय था। घनघोर घटा छायी हुई थी। सूर्यास्त से पूर्व ही अंधेरा-सा होने लग गया, रास्ता साफ दिखाई नहीं दे रहा था। दीक्षा का प्रथम दिवस, नंगे पाँव मुनि अपने कंधे पर आचार्यश्री को लेकर आगे बढ़ते जा रहे थे। कंकर, पत्थर आने पर मुनि ज़रा से डगमगाते तो आचार्य श्री क्रोधित हो जाते-अंधे हो क्या? देखकर नहीं चलते। तुम्हारे हिलने से मुझे कितनी तकलीफ होती है। मुनि चन्द्रयश मन ही मन पश्चाताप करते, अरे मैं कितना पापी हूँ। मेरे कारण गुरुदेव को कितनी तकलीफ हो रही है। वे चलते-चलते पुनः पुनः अपने गुरुवर से क्षमापना करते और विनय के इन भावों से उनके परिणामों में इतनी उच्चता का समावेश हुआ कि उसी समय उनको केवल ज्ञान हो गया। अब उन्हें अंधेरे में भी सब कुछ दिखाई दे रहा था। अचानक चेले की चाल में अंतर आने से तकलीफ कम होने के कारण आचार्य श्री ने शांत भाव से पूछा, अब तो तुम ऐसे चल रहे हो जैसे प्रकाश में चलते हो, आख़िर क्या बात है? शिष्य ने कहा गुरुदेव आपकी कृपा दृष्टि के कारण अंधेरे में भी सब कुछ दिखाई देने लगा है। आचार्यश्री चौंके। उन्हें सब कुछ समझ में आ गया। वे मन ही मन प्रायश्चित करने लगे। उन्होंने सोचा धिक्कार है मुझे। अज्ञानता के कारण मैंने केवलज्ञानी मुनि की आत्मा को बहुत दुःख पहुँचाया है। उनका पश्चाताप अत्यधिक बढ़ता गया और उनको भी केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। इस प्रकार विनय गुण के कारण मुनि चन्द्रयश का भी तथा गुरु का भी आत्म कल्याण हुआ। | 79 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003884
Book TitleBahetar Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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