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________________ कारण और सोच के कारण ही हम अशांत हैं । ऐसा हुआ, संता भिखारी ने बंता से कहा – मैं बहुत लाचार हूँ, कुछ खाने को दे दीजिए। मिसेज बंता बोलीहट्टे-कट्टे तो दिख रहे हो। हाथ-पैर भी सलामत हैं। फिर किस बात से लाचार हो?संता भिखारी बोला- जी अपनी आदत से। सहिष्णुता का ह्रास, दूसरों की उन्नति के प्रति ईर्ष्या-भाव और दूसरों से स्वार्थ युक्त अपेक्षाएँ रखने के कारण हम अशांत होते जा रहे हैं। हम इसलिये दुःखी नहीं हैं कि हमारे पास कम है हम इसलिए दुःखी हैं क्योंकि पड़ोसी हमसे ज़्यादा सुखी है। ___ किसी जिज्ञासु ने मुझसे पूछा, क्या कारण है कि आपके पास कुछ भी नहीं है, फिर भी आप हमेशा प्रसन्न और आनंदित रहते हैं, जबकि मेरे पास सब कुछ है,फिर भी मैं दु:खी और परेशान रहता हूँ। मैंने उस जिज्ञासु से कहा – चलो, बाहर चलते हैं। वहीं बैठकर चर्चा करेंगे और मैं उसे लेकर स्थान के बाहर आ गई। हम एक शिलाखंड के पास बैठ गए। शिलाखंड के एक तरफ तो आकाश को छूता हुआ देवदार का वृक्ष था, तो दूसरी तरफ एक नन्हा-सा गुलाब का पौधा था। मैंने जिज्ञासु से कहाइन दोनों वृक्षों को ज़रा गौर से देखो। इन्हें मैं कई दिनों से देख रही हूँ। इन्हें मैंने आपस में कभी लड़ते-झगड़ते नहीं देखा। मैंने इन्हें एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हुए कभी नहीं देखा। मैंने इन्हें कभी एक-दूसरे जैसा होने की कुचेष्टा करते हुए भी नहीं देखा। बल्कि मैंने देखा कि हवाओं के बहने पर जिस मस्ती में देवदार झूमता है उसी मस्ती में यह नन्हा पौधा भी झूमता है। मैंने देखा है कि जिस आनंद में भर यह छोटा पौधा डोलता है, उसी आनंद से भरकर वह विशालकाय वृक्ष भी डोलता है। मैंने देखा कि हवाओं के संग जैसे यह देवदार नाचता है, ठीक उसी लय में यह गुलाब का पौधा भी नाचता है। मैंने अनुभव किया है कि देवदार अपने होने में राज़ी है और गुलाब अपने होने में राज़ी है। इसलिए दोनों सुखी हैं और मैं भी अपने होने में राज़ी हूँ। मैं जो भी हूँ, उसमें संतुष्ट हूँ। इसलिए मैं भी सुखी हूँ। लेकिन तुम अपने होने में राज़ी नहीं हो। तुम दूसरों जैसा बनना चाहते हो, दूसरों जैसा प्राप्त करना चाहते हो। बस, यह दूसरों जैसा बनने और होने की कुचेष्टा ही तुम्हारे दुःख का कारण है। 23 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003884
Book TitleBahetar Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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