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के विस्तार के लिए सकारात्मक सोच के साथ सांसारिक दायित्व का निर्वाह करते हुए आसक्ति से परत रहना ज़रूरी है।। आसक्ति दुःख की जननी है। जितनी ज़्यादा आसक्ति होगी उतनी ही राग-द्वेष की अनुभूति होगी, उतना ही हम स्वयं को अशांत अनुभव करेंगे।
मन के अशांत रहने से व्यक्ति की सात्त्विक बुद्धि तिरोहित हो जाती है। करणीय-अकरणीय का विवेक समाप्त हो जाता है। विवेक के समाप्त होने पर आचरण अंधा हो जाता है। यह अंधापन जीवन का बंधन है और इस अंधेपन से मुक्ति ही जीवन का मोक्ष है। कहा भी गया है -
____ मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः। मन ही मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष का कारण है। हमें संसार की चिन्ता करने की बजाय अपने मन को सुधारना चाहिए।
अरे सुधारक! जगत की, चिन्ता मत कर यार।
तेरा मन ही जगत है, पहले इसे सुधार॥ हम ठीक इसके विपरीत कर रहे हैं। अपने मन को सुधारते नहीं हैं और जगत् को सुधारने की बात करते हैं। मूल को नहीं सींचते हैं, उसके पत्तों और शाखाओं का सिंचन करते हैं । इसी के चलते हमारा मन अस्वस्थ एवं अशुद्ध हो रहा है। बहुत से लोग शरीर से हृष्ट-पुष्ट, सुख साधनों से परिपूर्ण होते हैं, पर उन्हें रात-दिन चिंता सताती रहती है। वे व्यक्ति कहीं भी जाए उनकी उपस्थिति न होने के बराबर होती है। ऐसे व्यक्तियों का जीवन दयनीय बन जाता है। इसका मूल कारण है मन की वृत्तियों पर नियंत्रण की कला का अभाव। परिणाम स्वरूप ज़रा-सी बात में मन चंचल, व्यग्र] चिन्तातुर और उदास हो जाता है। मन की स्फूर्ति, प्रसन्नता और ताज़गी जिस प्रकार की रहनी चाहिए वह समाप्त हो जाती है। मन को मित्र बना लेने पर सारी दुनिया स्वत: मित्र बन जाती है।
'मन विजेता, जगतो विजेता' जो मन को जीत लेता है वह सारे विश्व को जीत लेता है। • हम आज इतने अशांत क्यों हैं? यदि इसके लिए चिन्तन करें, स्वयं का अवलोकन करें तो पाएंगे कि हमारी अपनी प्रवृत्तियों के कारण, क्रियाओं के 22 |
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