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'कर्मन की गति न्यारी'
सुखी होने के लिए पुण्य की संगति व पाप की निसंगता ज़रूरी है । आज दुनिया में चारों ओर दुःख, भय और संताप में वृद्धि होती जा रही है । इसका एकमात्र कारण पाप से भीति और धर्म से प्रीति का अभाव है ।
कुछ लोग पाप करने के बाद उसे पुण्य से छिपाना चाहते हैं परन्तु वह छिपा नहीं रह सकता। कहा गया है.
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पाप कर्म में लिप्त रहने वाले मनुष्य अधम होते हैं, राजदण्ड के भय से पाप आचरण नहीं करने वाले सामान्य होते हैं । मध्यम स्तर के व्यक्ति परलोक के भय से, पर उत्तम व्यक्ति अपने स्वभाव से ही पाप का आचरण नहीं करते
हैं ।
पाप छिपाये ना छिपे, छिपे तो मोटा भाग । दाबी - दूबी ना रहे, रुई लपेटी आग ॥
अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्ध की ओर अपने जीवन को मोड़ कर धरती पर प्रेम, अहिंसा और सत्य के फूल खिलाने हैं ताकि न केवल हमारा जीवन महक से भर जाए वरन् इंसानियत भी इससे सरोबार हो जाए ।
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