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होते हैं। उनका मनोबल और आत्मबल पूरा प्रखर होता है, वे ही मन, वचन, काया से शील और ब्रह्मचर्य का पालन कर पाते हैं। शेष तो काम वासना के प्रवाह में बहते चले जाते हैं। कितने लोग तो ऐसे होते हैं जिनमें किनारे लगने के भाव ही नहीं उठते । कुछ के भाव उठ जाते हैं तो किनारा नहीं मिलता। कुछ को किनारा मिल जाता है तो नदी का प्रवाह उन्हें आकर्षित करता है और वे वापस जाकर उसमें डू जाते हैं। इसलिए जो भी भोगों के इन प्रवाहों को समझेगा वही इनसे बाहर निकलने की थोड़ी-सी इच्छा, थोड़ी-सी आध्यात्मिक अन्तरभावना पैदा कर सकेगा ।
मनुष्य के अंदर भोग की तीन श्रेणियाँ होती हैं- सामान्य प्राणी जिनमें भोग की भी सामान्य तमन्नाएँ जगा करती हैं। मानवीय प्रकृति के अनुरूप क्योंकि हम जो अन्न-जल ग्रहण करते हैं उससे केवल शारीरिक बल ही नहीं मिलता अपितु भोग - प्रधान बल भी मिलता है । दूसरे होते हैं जिनमें तीव्र भोग लालसा रहती है । इधर चिंगारी उठी उधर शोला भड़का । इनके भीतर भोग की तमन्ना इतनी अधिक होती है कि वे हर समय वासना के प्रवाह में बहते रहते हैं । ऐसे लोग मंदिर में जाकर भी भोग की तरंगों में डूबे रहते हैं । पूजा, व्रत, आराधना के समय भी वही भोग की तरंगें उठती रहती हैं। ध्यान के समय भी पूर्व में भोगे गए भोगों का स्मरण या और भोग भोगने हैं उसकी तरंग । ययाति की तरह उनके भीतर इस तरह की कामनाएँ उठती रहती हैं । ये कभी शांत ही नहीं होतीं। तीसरे प्रकार के भोगियों को मैं अत्यधिक प्रगाढ़ भोगी कहता हूँ । वासना के, काम के अंधे जो व्यभिचारी होते हैं । ऐसे लोगों के भीतर वेश्यालय जाने की तमन्ना रहती है। पराई स्त्री और स्व- स्त्री का कोई विवेक नहीं रहता । उनके लिए नारी मात्र देह होती है । वे कामान्ध बने माँ - बहिन, पुत्री तक को नहीं छोड़ते ।
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हम स्वयं की अन्तर्दशा को देखें । भीतर के प्रवाह को जानें जिससे प्रेरित होकर मनुष्य संसार में जीता है, प्रवेश करता है । हमें खुद ही अपना मूल्यांकन करना होगा । किस दशा में हम जी रहे हैं । सामान्य दशा वालों के मन में तो गुरुजनों का सत्संग सुनकर, उनके सान्निध्य में बैठकर, धर्मशास्त्रों का श्रवण करके ही निर्मलता, पवित्रता और उज्ज्वलता साकार होने लगती है । उन्हें ब्रह्मचर्य पालन करने में, शीलव्रत धारण करने में बहुत अधिक हुज्जत नहीं करना पड़ती। दूसरे किस्म के लोगों के मन में बात उतरती ही नहीं । लेकिन
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