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काम करें आप हू-ब-हू मेरी स्वर्ण प्रतिमा बनवा दीजिए। एक महीने तक उस स्वर्ण प्रतिमा को मैं अपने पास रखूगी।
__एक माह बाद छहों राजकुमारों को अलग-अलग दरवाजों से महल में एकत्रित किया गया। वे चौंक पड़े । छः राजकुमार । तो क्या मल्लि ने उनके साथ धोखा किया ? वह किसके साथ शादी करना चाहती है। खैर, जैसे ही वे कक्ष में प्रविष्ट हुए देखा सामने स्वर्ण-प्रतिमा खड़ी हुई है। देखकर मुग्ध हो जाते हैं कि क्या सुन्दरता है, स्वर्ण की तरह चमक रही है। ऐसा रंग-रूप तो न कभी देखा, न सुना । वे उस प्रतिमा पर मोहित हो रहे थे कि तभी असली मल्लि अन्दर आती है और अन्दर आते ही प्रतिमा का ढक्कन खोल देती है। सड़ांध का भभका पूरे कक्ष में फैल जाता है। राजकुमार नाक-भौंह सिकोड़ते हुए नाक बन्द करते हैं। तभी मल्लि कहती है- क्या हआ राजकुमारो ! तुम इसी मल्लि के प्रति मोहित थे। इसी प्रतिमा को देखकर तुम लोग कह रहे थे, क्या सुन्दर नयनाभिराम रूप है, जो न देखा न सुना। राजकुमारों, जो खाना एक महीने के दौरान मैंने खाया है, वही उतना का उतना खाना इस मूर्ति में भी डाला है और परिणाम यह दर्गंध है। मेरी यह काया भी इसी स्वर्ण प्रतिमा की तरह है, जिसमें केश, रोम, नख, मल, मूत्र, कफ, वायु, पित्त, मवाद, खून के अलावा और कुछ नहीं है। तुम लोग व्यर्थ ही इसके प्रति मोहित हो रहे हो।
मल्लि की बातें सुनकर राजकुमारों की विकार-वासनाएँ बदलने लगती हैं । ऐसी ठोस प्रत्यक्ष अनुभूति होती है कि वे विरक्त हो जाते हैं। उसके बाद उस कक्ष से सात संन्यासी बाहर निकलते हैं। एक स्वयं मल्लि और छ: राजकुमार । जिन्हें स्वर्ण-प्रतिमा को देखकर और मल्लि की बातों को सुनकर किसी पूर्व जन्म की स्मृति हो आती है और उसी से प्रेरित होकर वे संन्यासी बन जाते हैं और आध्यात्मिक साधना करने के लिए तत्पर होते हैं । वे सच्ची अनुपश्यना करते हुए अपने जीवन में बुद्धत्व का कमल, तीर्थंकर और अरिहंत की श्रेणी को प्राप्त होते हैं। वे उस उच्च पद को उपलब्ध करते हैं, जिसे हम मोक्ष और महापरिनिर्वाण कहते हैं।
धन्य हैं वे लोग जिन्होंने जीवन की धन्यता प्राप्त की, अपने आध्यात्मिक कल्याण को उपलब्ध हुए। इसका रास्ता निकलता है अनुपश्यना से। काया में रही हुई अशुचिता को भलीभाँति देखने से, जानने से, उसके बारे में चिंतन-मनन करने से । ध्यान, अनुपश्यना, चिंतन-मनन सभी मार्ग हैं। जब कई पगडंडियाँ 194
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