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________________ क्योंकि मैं अनाथ हँ। राजा ने कहा- अगर तुम अनाथ हो तो मैं तुम्हारा नाथ बनने के लिए तैयार हूँ। मुनि हँसे और बोले- जो खुद ही अनाथ है, वह मेरा नाथ क्या होगा ? राजा ने कहा- क्या कहते हो, मेरे पास राजमहल है, राजकोष है, राजसेना है और तुम कहते हो कि मैं अनाथ हूँ। मुनि ने कहा- जो गलती तुम कर रहे हो, वही गलती मैंने भी की थी। इसी तरह मेरे पास भी राजसैनिक थे, राजमहल थे, राजरानियाँ थीं। मैं बीमार पड़ गया, सोचता था, सब मेरे सहायक हैं। पर एक दिन ऐसा आया, जब राजवैद्यों ने जवाब दे दिया। मैं मृत्यु के निकट पहुँच गया। मुझे लगा यहाँ कोई किसी का नाथ नहीं, कोई किसी के लिए शरणभूत नहीं। मैंने मन में ठान लिया, क्योंकि वैद्यों के अनुसार तो दूसरे दिन का सूरज भी देखना मेरे नसीब में न था। मैंने ठान लिया कि अगर दूसरे दिन का सूरज उग गया तो मैं अपने जीवन के अँधेरे को दूर कर दूंगा। जन्म-जन्म के अँधेरे को दूर करने के लिए संन्यास धारण कर लूँगा। मेरे संकल्प की शक्ति समझो या प्रभु की व्यवस्था, अगला दिन भी आया, सूरज भी उगा। इसके साथ ही मैंने राजमहल छोड़ दिया, इस बोध के साथ कि यहाँ कोई किसी का शरणभूत नहीं है। कोई किसी का नाथ, स्वामी और मालिक नहीं है। तभी से मैंने अपना नाम भी 'अनाथी' रख लिया। साधक बार-बार इस बात का चिन्तन-मनन और अनुप्रेक्षा करे। वह अनुभूति के आधार पर समझे । बुद्धि के तल पर भी समझे कि जीव अकेला आता है और अकेला ही जाता है। वह अपने शरीर को भी अपने से भिन्न समझता है, भिन्न देखता है। खुद के भीतर रहने वाली अशुचिताएँ, अपवित्रताएँ, गंदगियों को समझता है। वह समझने लगता है कि देह के किनकिन अंगों के प्रति वह कितना मोहित है, जबकि यह सारा शरीर तो गंदगियों से भरा पड़ा है। बुद्ध ने बत्तीस प्रकार की गंदगियाँ बताई हैं, जिनसे यह शरीर भरा हुआ है। जब वासना का प्रवाह चित्त में उठे, तब साधक चिंतन और मनन करे, प्रत्यक्ष अनुभूति करे कि शरीर में नख से लेकर शिख तक मैल और गंदगी भरी पड़ी है। इस देह में कुछ भी डालो, बाहर कुछ भी लगाओ। सबका परिणाम अन्ततः दुर्गंध और गंदगी ही है। देह को अच्छे से अच्छा खाना खिलाओ, पिलाओ, परिणति मल-मूत्र में ही होने वाली है। देह के ऊपर कितने भी सुगंधित द्रव्यों का उपयोग करो, सब पसीने में बह जाने वाले हैं और अन्त में पसीने की ही गन्ध आने वाली है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम खाना-पीना 192 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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