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लेकिन बीस वर्षों तक संन्यासी बने रहने के बावजूद पूर्व में भोगे गए भोगों के जंजाल से मुक्त नहीं हो पाया। जब उसने संन्यास लिया था तो उसके साथ घटना यह घटी थी कि बुद्ध आहारचर्या के लिए राजमहल में आए थे। भगवान महल में आए थे, अतः उसे भी आतिथ्य-सत्कार के लिए जाना पड़ा। आहार के बाद भगवान के साथ कुछ दूर तक जाने की भी परम्परा थी, सो पत्नी से रजा चाही कि प्रभु को कुछ दूर तक छोड़ आऊँ। पत्नी ने कहा- तुम जाओ, लेकिन मेरे बाल सूखने से पहले लौट आना।
जब बुद्ध राजमहल में आए थे, तब सिद्धार्थ पत्नी के गीले बालों को सहला रहा था, वह उसी समय स्नान करके आई थी। अचानक बुद्ध आ गए थे, उनकी आहारचर्या करवाई, उन्हें छोड़ने कुछ दूर तक जाने लगा, तब पत्नी ने कह दिया- तुम भले ही छोड़ने जाओ, प्रिये, पर वापस जल्दी लौट आना, मेरे बाल सूखें इससे पहले आ जाना । वह जाता है। बुद्ध उसे अपना भिक्षापात्र थमा देते हैं। उसकी हिम्मत नहीं होती कि मना कर सके और कहे कि प्रभु अपना पात्र वापस लीजिए, मुझे अपनी पत्नी के पास जाना है। बुद्ध के पीछे चलते-चलते विहार तक आ गया। वहाँ बुद्ध ने उपदेश दिया, उसे सुनकर अनेक लोग खड़े हो गए और भिक्षु बनने को तत्पर हो गए। वे अपने आत्म-कल्याण के लिए संन्यासी बन गए। बुद्ध ने सिद्धार्थ से पूछा- तुम्हारी क्या इच्छा है, तुम खड़े नहीं हुए। हाँ, हाँ, प्रभु मैं भी- अधिक कुछ न बोल पाया, बड़ों के सामने इन्कार करने का साहस न हुआ और वह भी भिक्षु हो गया। भिक्षु तो बन गया, धर्म-आराधना भी कर रहा है, बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघ शरणं गच्छामि भी बोल रहा है, लेकिन रह-रहकर वही पत्नी की बातें याद आती रहती हैं- अहो, मेरे बाल सूखने से पहले तुम लौट आना।
अनुपश्यना इसीलिए ज़रूरी है कि हमारे भीतर इसी तरह के मायाजाल, मोहजाल, वासनाजाल बनते रहते हैं। पता नहीं कब किसका कौनसा शब्द हमें बार-बार याद आता रहता है। अतीत की कौनसी स्मृति आ जाए और हम पर हावी हो जाए। ऐसी स्थिति में हम क्या करें ? महावीर ने कहा था इस स्थिति में चार चीजों की अनुप्रेक्षा करें, पुनः-पुनः चिंतन करें, पुनः-पुनः उसकी ठोस अनुभूति करें । बुद्ध और महावीर अलग-अलग दीपक भले ही हों, पर साधना के मार्ग पर अलग-अलग दीयों में एक ही ज्योति है। इसीलिए दोनों एक ही बात कहते हैं कि तुम अपनी ठोस अनुभूति, ठोस चिंतन और मनन करना । दूसरी
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