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यह क्या कह रहे हैं ? हाँ, जब तक आसक्ति होती है, तब तक इंसान का मन कभी संन्यास और कभी गृहस्थी की ओर डोलता रहता है। लेकिन जब भीतर अनासक्ति घटित हो गई तो वह आत्म-जागृति को उपलब्ध हो गया। वह स्मृतिमान हो गया, वह संप्रज्ञानी बन गया । परिणामतः इस बार जब वह वापस आया तो लौटकर घर न गया और अनासक्त होकर स्वयं अरिहंत के समान होता चला गया- भगवान ने कहा।
जब तक हम अपनी आसक्तियों को, विकारों को, भीतरी प्रवाहों को नहीं समझेंगे, तब तक मुक्त न हो सकेंगे। इसलिए हम जो भी करें, उसका संप्रज्ञान रखें, भलीभाँति उसका प्रत्यक्ष अनुभव करें, सचेतनता के साथ उसका भोग और उपभोग करें। सचेतनता ही मुक्त करती है। यह तो वह बिन्दु है, जिसका लौकिक जगत में भी प्रयोग किया जाए तो यह सफलता का आधार बन जाती है। सजगता को साधकर कोई भी नृत्यांगना रस्सी पर भी नृत्य कर सकती है। सजगता- धार्मिक, सामाजिक और आध्यात्मिक- तीनों जगह कल्याणकारी बन सकती है। जब हम चिन्तन और मनन करते हुए ठोस अनुभूति के धरातल पर पहुँचेंगे, तब यह संप्रज्ञान आध्यात्मिक परिणाम देने में भी सफल होगा।
श्री भगवान कहते हैं- कोई साधक काया को पाँव के तलवे से ऊपर की ओर और केश वाले सिर से नीचे की ओर त्वचापर्यंत नाना प्रकार की गंदगियों से भरा हुआ जान विवेचन करता है। इस काया में है- केश, रोम, नख, दाँत, त्वचा, माँस, नसें, हड्डी, मज्जा, गुर्दा, हृदय, यकृत, फुफ्फुस, प्लीहा, फेफड़े,
आँत, आंत्रयोजिनी, आमाशय, पाखाना, पित्त, कफ, पीप, लहू, पसीना, चर्बी, आँसू, वसा, लार, नाक का सेडा, लार और मूत्र ।
साधक जो अनुपश्यना के लिए, साधना के लिए तत्पर हुआ है, ध्यान में तत्पर हो रहा है, वह आनापान करने के लिए आती-जाती श्वासों को देखने के लिए, काया के संवेदनों को जानने के लिए, काया के उपद्रवों को शांत करने के लिए बैठ तो गया है, लेकिन यह सब हो नहीं पा रहा। जैसे ही उसका चित्त थोड़ा-सा एकाग्र होता है, कायानुपश्यना का ज्ञान तो नहीं होता, उसके अन्तरमन में धाराएँ चलनी शुरू हो जाती हैं। पूर्व में भोगे गए भोगों की, रस, रंग, रूप विषयों की अलग-अलग धाराएँ उसके भीतर बहने लग जाती हैं। वह भीतर के मकड़जाल में उलझ जाता है। कहते हैं स्वयं भगवान बुद्ध का भतीजा जिसका नाम भी सिद्धार्थ था, वह भी भगवान बुद्ध की प्रेरणा से संत बन गया।
1897
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