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चित्रहस्थ नामक एक बौद्ध भिक्षु हुए। दीक्षा के पहले वह साधारण-सा निर्धन चरवाहा था। एक दिन जब वह पशुओं को चरा रहा था, तो रास्ते में कुछ संत मुनि - भिक्षु मिल गए। वह भूखा था तो उसने भिक्षुओं से खाने के लिए भोजन माँगा। भिक्षुओं ने अपने पात्र में से थोड़ा खाना उसे भी दे दिया । खाना खाकर उसे आनन्द आ गया । उसने सोचा भिक्षु बनने में बड़ा फायदा है, बिना कुछ किए ही इतना अच्छा खाना मिल जाता है । वह घर गया, लेकिन उसे वही खाना याद आने लगा। दूसरे दिन वह फिर उन मुनियों के पास पहुँचा और बोला- मुझे तो दीक्षा दे दीजिए, मैं भी महाराज बनना चाहता हूँ। कुछ दिन तो उनके साथ रहा, लेकिन फिर बच्चे और पत्नी याद आने लगे । संसार और वासना की तरंगें उठने लगीं। वापस घर लौट आया। उसने भिक्षु-जीवन का त्याग कर दिया। कुछ समय तो ठीक रहा, फिर वही खाना याद आने लगा । अब फिर घर-गृहस्थी छोड़ भिक्षुओं के पास चला गया। संतों ने कहा- पहले भी तुम आए थे और सब छोड़कर यहाँ से भाग गए थे। उसने कहा- नहीं, अब नहीं जाऊँगा। मुझे भिक्षु बना दीजिए, अब नहीं भागूँगा, आप लोगों के पास ही रहूँगा। उसे पुनः दीक्षा दे दी गई। रहा थोड़े दिनों तक, खूब अच्छा खायापिया, लेकिन फिर वही घर - पत्नी याद आने लगे। फिर भाग गया। कहते हैं इस तरह वह छः बार संन्यासी बना और संसार में भागा। सातवीं बार जब वह आया तो संतों ने इन्कार कर दिया- नहीं, अब नहीं । तेरे कारण हमारे धर्म की अवहेलना होती है, अब तुझे भिक्षु नहीं बनाएँगे । लेकिन वह वापस नहीं गया । भिक्षुओं के साथ उनके पीछे-पीछे चलता रहा । बहुत दिन बीत गए, उन्हें भी दया आ गई और पुनः भिक्षु बना दिया ।
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दो-तीन वर्ष बीत गए । इस बार वह घर नहीं गया तो भिक्षुओं ने पूछाक्या बात है, इस बार तू घर नहीं गया । चित्रहस्थ ने कहा- प्रभु ! क्षमा करें, अब मुझे घर-गृहस्थी की आसक्ति नहीं रही, अब मुझे उसकी आवश्यकता नहीं है भिक्षुओं को आश्चर्य हुआ । तब वे भगवान के पास गए और कहा- वह चित्रहस्थ छः बार जा चुका था, सातवीं बार संन्यासी बना और कहता है, मुझे जाने की ज़रूरत नहीं है, घर-गृहस्थी की आसक्ति नहीं रही है । यह क्या हो गया है, हम समझ नहीं पाए। भगवान ने कहा- चित्रहस्थ ने अपने जीवन में आत्म-शुद्धि को प्राप्त कर लिया है। चित्रहस्थ अब संबोधि को उपलब्ध हो गया है। अब वह अरिहंत के समान हो गया है। भिक्षुओं ने पूछा- भगवन् आप
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