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________________ मनुष्य का विकास पशु से हुआ है। बन्दर, वनमानुष मनुष्य के पूर्वज माने गए, इसलिए अभी तक मनुष्य के अन्दर पशु जिन्दा है। ___हम कम्प्यूटर युग में पहुंच गए हैं। मानव समाज ने निश्चित ही बौद्धिक और वैज्ञानिक स्तर पर आश्चर्यजनक और विलक्षण ढंग से विकास किया है, लेकिन भीतरी चित्त के विकार और वासनाओं को कम करने में किसी प्रकार की तरक्की नहीं की है। बच्चे के जन्म को तो वह भ्रूण हत्या करके रोक देता है, लेकिन अन्तरमन में चलने वाले विकारों, मानसिक विकारों को काटने का रास्ता अभी ठीक ढंग से अपने हाथ में प्राप्त नहीं कर पाया। अध्यात्म का इसीलिए उपयोग है कि यह इन्सान के भीतर के विकारों को काटने का मार्ग देता है, उन पर विजय प्राप्त करने का रास्ता देता है। इसलिए अध्यात्म चाबी है, मानव समाज के लिए कल्याणकारी चाबी । इसी से मनुष्य का मंगल होगा। भीतर के बंद ताले खुलेंगे। अनुपश्यना का मार्ग हमें भीतर से शुद्ध कर रहा है। लालटेन के ऊपर काँच का गोला होता है, अगर यह भीतर से साफ हो जाए तो चिमनी में रहने वाला प्रकाश बाहर आने लग जाएगा। जब तक भीतर की शुद्धि न हो, तब तक सब व्यर्थ है। 'र' से राम भी होता है और रावण भी, 'क' से कृष्ण भी होता है और कंस भी, 'ग' से गाँधी भी होता है और गोडसे भी। लेकिन हम सभी इन लोगों की प्रवृत्तियों को जानते हैं। ये ही लोग बदल भी सकते हैं। जो स्वयं की प्रकृति को सँवारने के लिए प्रयत्नशील हो जाता है, वही राम, कृष्ण और गाँधी बन जाता है। एक व्यक्ति विकृत था स्वयं को संस्कारित न कर पाया। एक व्यक्ति संस्कारी था पर उसने विकृति को अपना लिया । श्रावक साँप बन गया और साँप सुधरकर सन्त बन गया। एक सन्त क्रोध में मरा, तो मरकर चंडकौशिक साँप हुआ। साँप ने शांति धारण कर ली तो मरकर भद्रकौशिक देव हुआ। महत्व योनि का नहीं है, महत्त्व भावदशाओं का है, चित्तदशाओं का है। यह बात अगर समझ में आ जाती है तो हम अपने क्रोध-मोह-विकारों को काटने में सफल हो सकते हैं। __मैं पुनः दोहरा रहा हूँ कि साधक को पाँच बातों का स्मरण हर समय रखना चाहिए- अनुपश्यना, आतापी, संप्रज्ञाशीलता, स्मृतिमान होना अर्थात् प्रतिपल जागरूक होना और राग-द्वेष से मुक्ति । अगर इनमें से एक भी चूक गया, किसी एक की भी उपेक्षा कर दी तो कमी रह ही जाएगी। 187 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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