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बगीचे की सैर करवाता हूँ। वहाँ ख़ुशबू-ही-ख़ुशबू है, वहाँ आनन्द-हीआनन्द है. वहाँ कितना पराग है । भँवरा रोज उसे यही बात कहता तो गुगचिये ने सोचा चलो चले ही जाते हैं । एक दिन गुगचिया बोला- आज मैं तैयार हूँ चलो। दोनों चले, बगीचे की सैर की, सुगंधित फूल खिले हुए थे, खूब पराग भी था। घूमते हुए काफ़ी समय बीत गया तो गुगचिये ने भँवरे से कहा- तुम तो कहते थे, बहुत अच्छी ख़ुशबू आती है, खूब पराग है, बहुत आनन्द है, लेकिन मुझे तो यहाँ कुछ भी नहीं मिला, न सुगंध, न पराग । मुझे तो वही दुर्गन्ध मिल रही है, जो वहाँ थी। भँवरा बोला- ऐसा कैसे हो सकता है ? मुझे तो ख़ुशबू आ रही है
और तुझे नहीं आ रही । वह उसे अन्य और सुगंधित पौधों के पास लेकर गया, लेकिन गुगचिये को ख़ुशबू आई ही नहीं। तब भँवरे ने कहा- रुक, तू अपना मुँह
और नाक खोल । देखा तो वहाँ गोबर भरा हुआ था। भँवरा बोला- अरे, तू जब तक अपने पहले वाले कचरे को निकालकर नहीं आएगा, तब तक तुझे इस मोक्ष और निर्वाण के उद्यान की सुगंध और आनन्द कैसे उपलब्ध हो सकेंगे ?
जब तक हम चित्त की अन्तशुद्धि के प्रति जागरूक नहीं होंगे, अनुपश्यना करने के लिए तत्पर नहीं होंगे, तब तक केवल मंदिर जाने से क्या हो जाएगा ? केवल धर्म की किताबों को पढ़ने से क्या होगा ? हमें अपने भीतर की शुद्धि के प्रति जागरूक होना है। अपनी आसक्तियों को, कमज़ोरियों को, कर्म के बीजों को, कर्म की प्रकृति को समझकर अपनी वर्तमान स्थिति को जानना है। बाहर से तो साधक नज़र आ सकते हैं, लेकिन भीतर तो वही वासना का गन्दा नाला बहता रहता है। लेकिन इसके प्रति सजग हो जाने पर हम इन धाराओं से धीरेधीरे मुक्त होते जाते हैं। यह सजगता और सचेतनता ही चाहिए, यही तो साधना है।
हम लोग ‘महासति पट्ठान सुत्त' के कुछ सूत्रों पर विचार कर रहे हैं, पट्ठान सुत्त अर्थात् भीतर में प्रवेश दिलवाने वाला सूत्र । यह सूत्र इसीलिए हमारे लिए उपयोगी है कि हम स्वयं को समझ सकें। अब हम श्री भगवान के उस सूत्र में प्रवेश करते हैं, जो हमें भोग, वासना और मोह की आसक्तियों को कम करने का तरीका बता सके। भोग, मोह और वासना की जड़ें हमारे भीतर बहत गहरी हैं। बाहर से हम इन्सान ज़रूर दिखाई देते हैं, लेकिन अभी तक भीतर से इन्सान के स्वरूप को उपलब्ध नहीं हुए। सम्भव है हमारे भीतर अभी तक वही पशुता सक्रिय हो । हालांकि डार्विन ने विकासवाद का सिद्धान्त दिया और कहा कि 861
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