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तड़पता है, जिसका वियोग हो जाने पर रातों की नीन्द हराम हो जाती है, वह हर चीज़ आसक्ति का हिस्सा बनी। कई बार ठोकरें लगीं, फिर भी आसक्ति नहीं टूटी। कई बार उपेक्षा झेली, पर मन फिर भी उलझा ही रहा ।
कुछ आसक्तियाँ ऐसी होती हैं, जो जल्दी नहीं टूटतीं। जैसे- मोहमूलक आसक्ति- बार-बार वही याद आता रहता है । दूसरी है - भोगमूलक आसक्ति, कामासक्ति कि प्रभु का स्मरण करते हुए भी वही सब धाराएँ भीतर में चलती रहती हैं। काम-भोग की धाराओं का प्रवाह हमारे मन का सबसे निचला स्तर है कि हम दो पल भी प्रभु का ध्यान नहीं कर पाते और संसार की धारा का जो निम्नतम स्तर है, उसमें उलझ जाते हैं । ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि हमारे भीतर जो आसक्तियों की जड़ें हैं, उनमें ये सब चीजें व्याप्त रहती हैं । अनुपश्यना का लक्ष्य और उद्देश्य तथा परिणाम भी इन्हीं चीज़ों से जुड़ा है कि व्यक्ति अपने भीतर की इस तरह की वासनाओं का उच्छेदन किस तरह करे । हम सोचें कि आख़िर हम कब तक ये सूगले काम करते रहेंगे ? कब तक यों ही उलझे रहेंगे ? गृहस्थी को जिओ पर आख़िर कभी-न-कभी तो उस पर विराम लगाओ ? मरते दम तक हम गृहस्थी ही रहेंगे या वानप्रस्थ को भी जिएँगे ? मैं दाम्पत्य का विरोधी नहीं हूँ, पर भोगों का ये अंधा सिलसिला कब तक जारी रहेगा ? हम लोग क्या मुक्ति की बातें ही करते रहेंगे या मुक्ति की रोशनी भी अपने दिल में उतारेंगे। हमारे देश में धर्म-कर्म की बातें बहुत हो गई, बातों से भला नहीं होने वाला। आचरण से भला होगा । जिओ, मुक्ति को जिओ । वैसे करो, जिससे हम चार क़दम ठाकुरजी की तरफ बढ़ें, प्रभुजी की तरफ बढ़ें, निर्वाण की ओर बढ़ें |
कुछ प्रबन्ध
यह सत्य है कि अपन लोगों के भीतर भोग, राग, मोह, क्रोध, द्वेष आदि की धाराएँ, इनकी क्रिया-प्रतिक्रियाएँ चलती रहती हैं, लेकिन हमें इसी बात पर गौर करना है कि इनसे मुक्त कैसे हुआ जाए । यह क्रिया-प्रतिक्रिया है, जो मन में उठती हैं, इनका हमारे शरीर पर भी प्रभाव हो जाता है, हम कहीं और बह जाते हैं। बैठते तो हैं ध्यान करने के लिए, लेकिन मन-ही-मन वासना भोग और काम के प्रवाह में चले जाते हैं और इतने निचले स्तर पर चले जाते हैं कि हमारा उद्धार कैसे हो ?
एक भँवरे ने गोबर के कीड़े से, जिसे गुगचिया कहते हैं, कहा- तुम यहाँ क्या गोबर में, गन्दगी में पड़े रहते हो ? आओ मेरे साथ चलो मैं तुम्हें फूलों के
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