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________________ जा रहे हो ? नारद बोले- तुम कितने पीड़ित हो, कीचड़ में रहते हो, विष्ठा खाते हो, गंदगी में पड़े रहते हो, यह कोई जीवन है, चलो स्वर्ग में चलो । सूअर ने कहा- वहाँ क्या होगा ? नारद ने बताया- वहाँ सभी सुख-साधन, ऐश्वर्य हैं। सूअर ने पूछा- वहाँ सब कुछ है ? नारद बोले- हाँ। तब वहाँ का स्वरूप बताओ- सूअर ने जिज्ञासा की। नारद ने वहाँ के वैभव का वर्णन किया, राजसी ठाठ के बारे में बताया। सूअर ने खान-पान, रहन-सहन के बारे में जानना चाहा तो नारद ने बताया कि वहाँ इन सबकी ज़रूरत ही नहीं होती। वहाँ तो केवल रहना है, करना-धरना कुछ नहीं। बस, आराम की जिंदगी बसर करना है। तब सूअर ने कहा- अरे वहाँ तो कुछ भी नहीं है। नारदजी तुम वापस जाओ, मुझे ऐसा उद्धार नहीं करवाना है, तुम जाओ। तुम तुम्हारे सुखी रहो, हम हमारे सुखी हैं। प्राणी जो आसक्त है, उसे वहीं अपना सारा सुख नज़र आता है, जहाँ जिस ओर उसकी आसक्ति होती है। अनगिनत लोग सत्संग सुनते हैं, पर प्रभाव कितनों पर होता है ? कभी परमात्मा के अनुग्रह से, गुरु-कृपा से कभी प्रबल पुण्य का उदय है, तब कहीं कोई संन्यास की ओर, प्रभु मार्ग की तरफ, कल्याण-पथ पर अपने क़दम बढ़ाता है। अन्यथा संसार में ही रमा रह जाता है। कहते अवश्य हैं कि पति-पत्नी संतान से परेशान हैं, पर छोड़ नहीं पाते । इन सबकी वज़ह आसक्ति है। इसलिए आज जिस सूत्र को हम लेंगे वह संसार के प्रपंचों से मुक्त करने का रास्ता देता है। अनासक्ति का अर्थ मुक्ति की प्राप्ति नहीं है। अनासक्ति का अर्थ है, जहाँ हम चिपके हुए थे, वहाँ से दो क़दम ऊपर उठना। अभी हम दो क़दम बाहर तो निकलें। जिस व्यक्ति ने पानी में डुबकी लगा दी है, वह पानी से बाहर निकलेगा, तभी तो आसमान को देखेगा। जो तालाब में से निकलने को ही तैयार नहीं है, उसके लिए मुक्ति का अर्थ ही क्या होगा। हम चार क़दम सूरज की ओर बढ़े तो सही। __ अनासक्ति मुक्ति की ओर ले जाने का रास्ता खोलती है। जब आसक्ति टूटती है, एक-एक क़दम आगे बढ़ते हैं, तब आगे की मंजिल क़रीब आनी शुरू होती है। हमारे भीतर की आसक्तियाँ ही हमें बाँधती हैं। आसक्ति ही बंधन है। शरीर की आसक्ति, विचारों की आसक्ति, वस्तुओं की आसक्ति, भोगों की आसक्ति, मेरी-तेरी की आसक्ति । आसक्ति के सौ रूप। जहाँ से भी चिपके, जो भी चीज़ मन पर हावी हुई, वह चीज़ आसक्ति। जिसे पाने के लिए मन 84 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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