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गुरु ने कहा- तब पन्द्रह साल में काम करवा देंगे । पन्द्रह साल भी अधिक हैं।
राजा ने कहा
• ठीक है दस साल ।
दस साल भी ज़्यादा हैं ।
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अच्छा पाँच साल ।
• अरे नहीं ये भी ज़्यादा हैं।
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तीन साल ।
ये भी ज़्यादा लग रहे हैं ।
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तब इससे कम में काम नहीं हो सकता है । यह अन्तिम समयसीमा है, इसमें जो मिलना होगा, मिल जाएगा ।
राजा ने विचार किया । उसके मन में आत्म-ज्ञान प्राप्त करने की प्यास थी । इसलिए वह तैयार हो गया । तब गुरु ने कहा- तू रुक तो गया है, पर सावधान ! इन तीन वर्षों में तू किसी भी प्रकार का प्रश्न नहीं उठा सकेगा, प्रतिक्रिया नहीं कर सकेगा, जैसा मैं कहूँगा, वैसा ही करना होगा । राजा बोलाबिल्कुल। जो आप कहेंगे, वही करूँगा, कुछ भी न कहूँगा । राजा रुक गया। एक साल बीत गया। इस दौरान गुरु ने न तो ज्ञान की बात की, न साधना की बात की। बल्कि कभी उससे झाड़ू लगवाते, कभी पोंछा लगवाते, कभी लकड़ियाँ कटवाते, कभी भोजन पकवाते, कभी दूर-दूर से पानी मँगवाते । केवल मेहनत करवाते । राजा ने सोचा कहीं यह गुरु मुझे बेवकूफ़ तो नहीं बना रहा, रोज़ मुझसे काम तो करवाता है, पर साधना की कोई बात ही नहीं करता । पर पूछूं भी तो कैसे, ज़बान से बँधा हुआ हूँ । राजा तो बुरा फँस गया, क्योंकि जा भी नहीं सकता और रहने की इच्छा भी न थी। तभी गुरु ने कहा- आज पानी पास वाले कुएँ से न लाना। सुदूर वाला कुआँ, जो वहाँ से पाँच किलोमीटर था, वहाँ से पानी लाने को कहा । राजा ने सोचा यह तो परेशान करता ही जा रहा है। ज्ञान की, ध्यान की तो कोई बात ही नहीं करता । मरता क्या न करता, ज़बान से जो बँधा था, लाया पानी। पानी लाकर रखा ही था कि पीठ पर डंडा पड़ा । उसने पूछा- 'क्या हुआ गुरुजी ?' गुरु बोले- पानी ठीक लाया न, तो रख दे 1
राजा तो परेशान हो गया कि इतनी दूर से पानी लाया और पीठ पर डंडा भी पड़ गया यह कैसी साधना और कौनसी समाधि का रास्ता है, आत्म-ज्ञान प्राप्त करने का यह कौनसा तरीका हुआ ! लेकिन बोले भी तो क्या ? अब तो यह
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