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________________ अखिल ब्रह्मांड के लोक की तरह ही हमारा देह रूपी लोक है। इस काया रूपी लोक के प्रति हमें जगना होता है, इसकी साधना करनी होती है। इसकी साधना के लिए श्री भगवान जो सूत्र कहते हैं, वह ईर्या पथ से जुड़ा है। बुद्ध कहते हैं- 'कोई चलता हुआ साधक भली प्रकार जानता है कि मैं चलता हूँ, ठहरा हुआ भली प्रकार जानता है कि मैं ठहरा हूँ, बैठा हुआ भली प्रकार से जानता है कि मैं बैठा हूँ और लेटा हुआ साधक भली प्रकार जानता है कि मैं लेटा हूँ।' अनुपश्यना कुछ विशेष समय के लिए नहीं होती। यह तो चौबीसों घंटे हमारी जीवन की सहचरी हो जाती है। हमें अपने होश और बोध को खातेपीते, उठते-बैठते, सोते-जागते बरकरार रखना होता है, संप्रज्ञान रखना होता है। वह जो भी क्रिया करता है, जानता है कि यह क्रिया मेरे द्वारा हो रही है। सम्भवतः विश्व में एकमात्र बुद्ध की प्रतिमाएँ ही ऐसी हैं, जो लेटी हुई अवस्था में उपलब्ध हैं। हाँ, विष्णुजी की प्रतिमा भी मिलती है, लेकिन उनमें वे लक्ष्मीजी के साथ क्षीरसागर में आराम फरमा रहे होते हैं। लेकिन बुद्ध लेटे हुए भी ध्यान की स्थिति में होते हैं। महावीर की बैठी हुई प्रतिमाएँ ही दिखाई जाती हैं अर्थात् महावीर को सम्पूर्णतः अप्रमत्त दिखाया जाता है, जबकि महावीर भी लेटते होंगे, वे भी चले होंगे, उन्होंने भी कुछ-न-कुछ खाया-पीया होगा, मल-मूत्र का त्याग भी किया होगा, लेकिन जब हम किसी को आदर्श बना लेते हैं तो उसकी श्रेष्ठ चीजों को ही दिखाना चाहते हैं, शेष सब गौण कर देते हैं। महावीर को भी लेटे हुए दिखाना चाहिए, क्योंकि साधक अहर्निश, सपने में भी अनुपश्यना करता है। स्वप्न में भी उसकी अनुपश्यना जारी रहती है, क्योंकि उसकी सचेतनता कभी खंडित नहीं होती। इसीलिए कहते हैं कि रात में सोते हए जब वह करवट बदले तब उसे करवट बदलने का भी बोध हो, उसका भी संप्रज्ञान करे, उसे भी भलीभाँति जाने । तब कह सकते हैं कि इसकी प्रज्ञाशीलता सध रही है, भीतर में जागरूकता सधी है। तभी तो हम झेन के डंडे की कहानी याद रखते हैं। कहानी यह है : एक राजा झेन फकीर के पास पहुँचता है और कहता है कि उसे समाधि प्राप्त करनी है, इसके लिए कितने साल लग जाएँगे ? गुरु ने कहा- तीस साल। ___ राजा ने कहा- तीस साल ! ये तो बहुत हैं, मेरे पास इतना समय नहीं है। 78 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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