SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आप मल ही है, तब उसके प्रति रहने वाली आसक्ति, लिप्सा, अपनेतृष्णा कम होने लगेगी। अन्यथा अस्सी वर्ष का बूढ़ा भी भोजन के लिए लालायित रहता है। सत्तर वर्षीय बाबा भी तीसरी शादी में रुचि रखते हैं । अर्थात् इन्सान का मन अतृप्त रहता है । तृप्ति और अनासक्ति, वीतराग दशा, वीतद्वेष और वीतमोह दशा तभी आएगी, जब हम सच्चाई से वाक़िफ होंगे। जो हमारे भीतर उदित हो रहा है, हमें उसकी सच्चाई से वाक़िफ़ होना है। किसी भी चीज़ का उदय होना महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि उदय और विलय के प्रति सचेतनता ही महत्त्वपूर्ण है। ध्यान रखो, सचेतनता ही साधना है । सचेतनता ही हमें आसक्ति के पार ले जाती है। सचेतनता से ही मुक्ति का कमल खिलता है । इसलिए खाओ, तो भी सचेतनता से, चलो तो भी सचेतनता से, बोलो तो भी सचेतनता से, कपड़े खोलो और पहनो तब भी सचेतनता से, मल-मूत्र का त्याग करो तब भी सचेतनता से । बिना सचेतनता के अगर शेविंग की तो सावधान ! ब्लेड का कट लग सकता है, खाना खाया, तो गाल दाँत में आ सकते हैं, कपड़े पहने तो चैन बन्द करना भूल सकते हैं, सड़क पर चले तो ठोकर खा सकते हैं और सीढ़ियाँ उतरे तो फिसल सकते हैं । इसीलिए कहते हैं, सावधानी हटी कि दुर्घटना घटी। - सचेतनता खुद ही एक साधना है, हर कार्य को पूर्णता देने का साधन सचेतनता ही है। जैसे गतिविधि के प्रति सचेतनता चाहिए, ऐसे ही जन्म, रोग, बुढ़ापा, मृत्यु के प्रति भी सचेतनता रहे। सुबह लेट्रिन जाओ तो विसर्जित तत्त्व प्रति भी सचेतनता रखें और जानें- तो यह है परिणाम । इसी से भोजन और स्वाद के प्रति रहने वाली मूर्च्छा, लालसा कम होगी। किसी को वमन हो तब भी जानें कि यह है परिणाम । शरीर का धर्म ही है बनना, बिगड़ना, सड़नागलना । सुबह भले ही काख या बगल में स्प्रे छिड़को, पर दोपहर में गौर करोगे तो बगल से बदबू ही आती नज़र आएगी। कुल मिलाकर, सचेतनता अपनाएँ, सचेतनता का दीप जलाएँ । बुद्ध कहते हैं- अप्प दीपो भव । अपने दीप तुम स्वयं बनो । प्रश्न है खुद के दीपक बनने का तरीका क्या है, तो जवाब होगा - सचेतनता । कहते हैं एक राजकुमार बहुत बीमार होता है । राजवैद्य, चिकित्सक सभी सारे प्रयत्न कर हार चुके हैं। राजा अत्यन्त व्यथित है, वह तीन दिन और तीन 76 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy