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________________ सोचा कि वे इसे खाकर क्या करेंगे, उन्होंने उसे अपनी पत्नी को दे दिया। पत्नी महावत से जुड़ी हुई थी, उसने वह फल महावत को दे दिया। महावत किसी गणिका के प्रेम में था, उसने वह फल उसे दे दिया। वह गणिका राजा से प्रेम रखती थी। सो उसने सोचा यह फल तो राजा के पास होना चाहिए। वह फल लौटकर राजा के पास आ गया। भर्तृहरि जानते तो पहले से ही थे, लेकिन ऊपरी-ऊपरी तौर पर ही जानते थे। अब उन्हें धक्का लगा। उन्होंने भलीभाँति तब सम्यक् रूप से जाना। पत्नी ने पहले भी लताड़ा तो होगा ही, लेकिन भर्तृहरि नहीं जागे, क्योंकि तब पहले चरण का ही जानना था, लेकिन आज जो जानने को मिला वह प्रज्ञापूर्वक, सम्यक् रूप से, परिधि से चार क़दम आगे निकलकर समग्र रूप से जानना हो गया ! जब वह फल हाथ में आया तब उस फल को देखकर भर्तृहरि की सोई हुई आत्मा जाग गई । मोह-विकार, राग-द्वेष में उलझी उनकी चेतना जाग गई। उन्होंने कहा- 'अरे !' और तभी वैराग्य-शतक के पहले श्लोक की रचना हुई- ‘यां चिन्तयामि सततम् मयी सा विरक्ता' - जिसके लिए मैं रात-दिन इतना तड़पता रहा हूँ, मैं नहीं जानता था कि वह तो मुझसे इतनी विरक्त है। भर्तृहरि तब राजा न रहे, राजर्षि हो गए। निकल गए राज-पाट छोड़कर । ठोकर लगी, तो चेतना जग गई। जीवन का सच्चा ज्ञान हो गया। हमारे द्वारा भलीभाँति जाना गया ज्ञान, भलीभाँति प्राप्त हुआ बोध ही संप्रज्ञान कहलाता है। इसी से हमारी मुक्ति का रास्ता खुलता है। एक साधक जो भीतर उठने वाली प्रवृत्ति के उदय-विलय का पल-पल दर्शन कर रहा है, उसी के भीतर अनासक्ति का फूल खिलता है, बुद्धत्व का कमल खिलता है। इसी तरीके से अनगिनत लोग तीर्थंकर हुए और अनगिनत लोग बुद्ध बने हैं। इन्होंने पल-पल सत्य को समझा और जाना ‘यह है । इसी से 'मैं' और 'मेरे' का भाव टूटता है। एक बार भलीभाँति जान लें। तत्त्वतः जान लें, बोधपूर्वक जान लें। __ अनुपश्यना यानी क्षण-क्षण, पल-पल की अनुपश्यना । जो भी हो रहा है, कर रहे हैं- सबकी अनुपश्यना । जीवन में जो भी घट रहा है उस सबकी अनुपश्यना। कितने ही प्रकार की अनुपश्यना । बस देखना कि 'यह है । कोई निक्षेप या आरोपण नहीं। हमारी बुद्धि, हमारी अनुभूति खुद जान रही है, खुद चैक-अप कर रही है। जैसे ही हम जानने लगेंगे कि भोजन का अन्तिम परिणाम 75 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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