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सबको आती है। मुझे भी, आपको भी । बुद्ध को लगा अगर मृत्यु सबके खाते में है, तो मृत्यु के पार क्या है ? अमृत क्या है ? बुद्ध को जन्म, जरा, रोग और मृत्यु जैसे तत्त्वों ने आन्दोलित कर दिया। वे पत्नी-बच्चे को छोड़कर निकल गए। परम त्याग के पथ पर, परम सत्य की तलाश में।
राजचन्द्र की आत्मा भी ऐसे ही जगी थी। घर में किसी बड़े-बुजुर्ग की मृत्यु हो गई थी। दूर पेड़ पर बैठे उनकी चिता को जलते देखा। चिता को क्या देखा, चिता को देखकर उनकी खुद की चेतना जग गई। जब भी कोई तथ्य अनुभूति और बोध की गहराई में उतर जाता है, तो जीवन में स्वतः संबोधि का प्रकाश साकार हो जाता है।
__ अभी तो जब हम श्मशान में जाते हैं किसी का दाह-संस्कार करने, तब ही पता चलता है कि काया अनित्य है, पर दूसरे दिन उसे भुला भी बैठते हैं, क्योंकि अब वह बोध रहा ही नहीं। हम तो उसे याद करने में भी डरते हैं, क्योंकि तब अपनी ही मौत दिखाई देने लगती है। जबकि यही सही समय है जागने का, अनुपश्यना करने का। अस्थि-कलश आपकी सोई हुई चेतना को झकझोर सकता है कि यह है काया- चार मुट्ठी राख और चार टुकड़े हड्डियाँ । प्रत्यक्ष अनुभूति देह से विदेह बनाती है, देहातीत बनाती है, जीवनमुक्ति का रास्ता खोलती है। संप्रज्ञानी होना क्या है- अपनी बुद्धि के साथ सचेतनता का उपयोग करते हुए प्रत्यक्ष अनुभूति करना।
___ जानना पाँच प्रकार का होता है- एक है केवल जानना, दूसरा हैप्रज्ञापूर्वक जानना और तीसरा है- सम्यक् रूप से जानना, चौथा है- अपनी परिधि से भी बाहर निकलकर जानना, पाँचवाँ है- सर्वज्ञ की भाँति जानना, समग्र प्रकार से किसी भी पहलू को, तत्त्व को, वस्तु को, व्यक्ति को जानना, स्वयं को जानना । जब हम जान लेते हैं, तो आँख खुल जाती है। सम्यक ज्ञान का परिणाम है सम्यक् दर्शन । अज्ञान तभी तक है, जब तक हम भलीभाँति नहीं जानते हैं। मोह भी तभी तक रहता है, मूर्छा भी तब तक है, जब तक हम ठीक प्रकार से नहीं जानते- केवल जानते हैं, ऊपर-ऊपर जानते हैं। जब तक केवल जानना है, तब तक अज्ञान, मोह, मूर्छा, अहंकार, कषाय, विकार-वासनाएँ हावी रहती हैं। अभी हम ऊपर-ऊपर, बाहरी तौर पर ही जानते हैं। ध्यान भीतर तक जानने का उपक्रम है।
स्मरण करें- राजा भर्तृहरि को, जिन्हें किसी ने अमृत फल दिया । राजा ने 74]
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