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________________ तत्त्व की अनुभूति नहीं हो रही है। न ही इनका आरोपण और निक्षेप करेंगे। तब काया में रहकर भी यह कैसे जानेंगे कि मैं काया नहीं हैं, क्योंकि हमारे सारे अनुभव तो काया के ही हैं। हमारी काया में हर क्षण परिवर्तन होते रहते हैं, भले ही हमें पता न चलता हो, लेकिन परिवर्तनशील होते ही हैं, जो समय-समय पर हमें नज़र भी आ जाते हैं। जो परिवर्तनशील हैं, पल-पल बदलता है, वह 'मैं' कैसे हो सकता है, क्योंकि संवेदना का उदय और विलय हो रहा है। अगर 'मैं' संवेदना हूँ तो मुझे भी मिट जाना चाहिए था, लेकिन मैं' मिटा नहीं हूँ। इसलिए 'मैं' हैं। जो उदय हआ, वह काया में था और विलय भी काया में ही हआ। इसलिए 'मैं' काया नहीं हूँ। ___'मैं' और 'मेरा'- न तो 'मैं' काया हूँ और न ही ‘मेरी' काया है। अभी हम बुद्धि के तल पर समझ रहे हैं। लेकिन साधनाशील अपनी वास्तविक अनुभूति में इसको जान रहा होता है। शाब्दिक रूप से भाषा में बुद्धि के तल पर समझना केवल चिन्तन-मनन है, लेकिन प्रत्यक्ष अनुभूति से जानना इसमें बहुत भेद है। बुद्धि से जानना और बुद्ध हो जाना इसमें गहरा फ़र्क है। अभी तो हम बुद्धि से चिन्तन-मनन कर रहे हैं, लेकिन जब आप एकान्त में रहकर स्वयं की अनुपश्यना करेंगे, तब प्रत्यक्ष अनुभूति कर पाएँगे, ठोस धरातल के रूप में। यूँ तो हम सभी जानते हैं कि शरीर अनित्य है, लेकिन यह जानना केवल बुद्धि के तल पर है। ठोस अनुभूति के रूप में नहीं जानते हैं। अगर ठोस अनुभूति के रूप में जानते तो इस काया का इतना शृंगार नहीं करते, इसका भोग-उपभोग नहीं करते, आहार-पानी के द्वारा इतना पोषण न करते। हम यह सब इसलिए करते हैं, क्योंकि हम बुद्धि के स्तर पर जानते हैं कि काया अनित्य है। बोध के स्तर पर नहीं जानते । जीवन-मरण सब जानते हैं, लेकिन व्यवहार में, अनुभूति के रूप में कुछ नहीं पता है। महावीर ने माता-पिता की अर्थियों को देखा था। उनकी जलती हुई चिताओं को देखा, देखते-देखते वे अन्तर्लीन हो गए। महावीर को लगा कि ये अर्थियाँ माता-पिता की नहीं, उनकी अपनी हैं। महावीर का देह-मोह जल गया। वे आत्म-जागृत हो गए। उन्होंने विदेह की खोज के लिए अभिनिष्क्रमण का क़दम बढ़ा दिया। बुद्ध ने भी राज-पथ पर शव-यात्रा देखी थी। उन्होंने सारथी से पूछा- लोग इस व्यक्ति को सुलाकर कंधे पर उठाए क्यों चले जा रहे हैं ? सारथी ने टिप्पणी की- यह व्यक्ति मर चुका है। मृत्यु अवश्यंभावी है, 73 73 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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