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कभी स्थूल और कभी सूक्ष्म हो जाती है। श्वास पर प्रगाढ़ता सधने पर तीसरे परिणाम के रूप में भीतर की अनुपश्यना होने लगती है। चौथे परिणाम के रूप में कहा जा सकता है कि वह बाहर की भी अनुपश्यना करने लगता है। पाँचवें परिणाम के रूप में भीतर और बाहर दोनों के प्रति एक साथ सचेतन होता है। दोनों का संप्रज्ञान और प्रत्यक्ष अनुभूति होती है। शरीर के किसी भी हिस्से में, पुद्गल-परमाणुओं के घनत्व में जो भी उदय हो रहा है, वह जानने लगता है कि वर्तमान क्षण में काया में अमुक प्रकार का उदय है। कभी दर्द के रूप में, जकड़न के रूप में या सुखद और दुःखद अहसास के रूप में सूक्ष्म संवेदन भी उदित होते रहते हैं। अहसासों का होना ज़रूरी नहीं है। अहसास न होने पर भी सहज साक्षी हो जाना है। अगर उदय है तो चित्त स्वतः उस ओर आकर्षित हो जाएगा, कोई आरोपण और हस्तक्षेप के बिना साधक उस वृत्ति को जानेगा। जैसे तालाब में बुदबुदा उठता है तो हम उसे रोक नहीं सकते। बाहर से किसी प्रकार रोक भी दिया जाए, तब भी अन्दर तो उठता ही रहता है।
इस तरह छठे परिणाम के रूप में उदय को जानने लगता है और सातवें परिणाम के रूप में विलय को भी जानने लगता है कि अब सब कुछ प्रश्रब्ध हो गया है, सब शान्त और उपशांत हो गया है, अब मौन है। आठवें परिणाम के रूप में उदय और विलय दोनों को एक साथ जानने लगता है। क्रोध-मान-माया की उदित होती प्रवृत्तियों को जान रहा होता है, साथ-साथ उनके विलय को भी पहचान रहा होता है। नौवें परिणाम के रूप में वह जान जाता है कि यह काया है। इसका यह धर्म है, यह प्रकृति है और वह यह काया नहीं है।
साधक जो प्रत्यक्ष अनुभूति में लगा हुआ है, अपनी सच्चाई से मुलाकात कर रहा है, स्वयं के प्रति सचेतन होने का अभ्यास कर रहा है, खुद के लिए आतापी है, जो साधना के लिए परिश्रम, उद्यम कर रहा है, वह भलीभाँति अपनी काया के बारे में जानने लगता है। ऐसी स्थिति में साधक को बोध होने लगता है कि मैं काया नहीं हूँ।
अब प्रश्न उठता है कि मैं काया क्यों नहीं हूँ ? दुनिया के सारे धर्मशास्त्र यही कहते हैं कि मैं काया नहीं, आत्मा हूँ। लेकिन हमारी अनुभूति में पहले काया ही आती है। हम अभी आत्मा शब्द को नहीं ला रहे हैं, किसी भी प्रकार का आरोपण नहीं कर रहे हैं। अभी तो हमें काया, श्वास और इससे होने वाले संवेदनों का ही संप्रज्ञान हो रहा है। अभी हमें नित्य तत्त्व, आत्म या परमात्म
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