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हमारे इस काया के लोक में श्वास का आना-जाना असाधारण और अलौकिक है, क्योंकि यह वह प्राण-वायु और प्राण-चेतना है, जिससे हमारे शरीर और चित्त की समस्त गतिविधियाँ प्रेरित और प्रभावित होती हैं । श्वासों के आवागमन से हमारा श्वसन तंत्र कार्य करता है । श्वसन तंत्र के संचालन से हृदय काम करता है। हृदय के कार्य करने से उसमें रक्त के परिवहन से मस्तिष्क काम करने लगता है। शरीर के प्रत्येक नाड़ी-तंत्र में, रग-रग में रक्त प्रवाह, देह की संवेदनाएँ, सारे अहसास अन्ततः श्वासधारा से जाकर ही जुड़ते हैं। इस तरह श्वास हमारे जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। हम अपनी श्वास साधारणतः स्वयं बन्द नहीं कर सकते । जब कोई तालाब या नदी में डुबकी लगाता है तो जब तक वह अपनी श्वास को रोकने में सफल होता है, तभी तक वह पानी में रह सकता है और जैसे ही उसे श्वास लेने की आवश्यकता पड़ती है, वह तत्काल बाहर आ जाता है, क्योंकि शरीर और इसकी व्यवस्थाएँ वायु के आधार पर संचालित होती हैं।
जब हमें अपने जीवन की सच्चाई का साक्षात्कार करना है तो श्वासधारा के बीच में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। जो जैसा हो रहा है, हम उसे वैसा ही यथावत् जानने का प्रयत्न कर रहे हैं, अभ्यास कर रहे हैं। हमारी देह में श्वासों के आवागमन के साथ ही अनेक प्रकार की संवेदनाएँ भी होती हैं। मृत शरीर श्वास नहीं लेता, इसलिए उसमें किसी प्रकार की संवेदनाएँ नहीं उठतीं। श्वास लेने वाली देह में अनेक-अनेक प्रकार के संवेदन अहसास उदित होते हैं। यह भी तय है कि ये संवेदन स्थायी नहीं होते, थोड़े-थोड़े समय में बदलते रहते हैं, यह हम सभी महसूस करते हैं। कभी भूख का संवेदन जगता है, कभी नीन्द का अहसास होने लगता है, कभी निवृत्ति की शंका होने लगती है। ये संवेदना हर समय नहीं होतीं, पर इस देह के अन्दर-ही-अन्दर सारी व्यवस्थाएँ चलती रहती हैं। इस काया में अलग-अलग संवेदनों का उदय और विलय होता रहता है। जब वे प्रगाढ़ हो जाते हैं तो हमारी साधारण बुद्धि और मन के द्वारा भी ग्रहण कर लिए जाते हैं, लेकिन अनुपश्यना करने वाला साधक अपने जीवन, शरीर, वाणी अर्थात् समस्त गतिविधियों का संप्रज्ञान, उनका बोध करने वाला अपने पल-पल के उदय और विलय का भी साक्षी होता जाता है।
साधक जब ध्यान में उतरकर अपने संवेदनों पर जागरूक होने लगता है, उन्हें समझने लगता है तो वे प्रत्यक्ष अनुभूति में आने लगते हैं। हमारी सचेतनता
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