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________________ 6 चलते-फिरते कैसे करें अनुपश्यना - आनापान - योग साधना और समाधि का प्रवेश द्वार है। आती-जाती श्वासधारा को बिना किसी हस्तक्षेप के, सचेतनतापूर्वक जानना, उसका बोध करना, उसके उदय और विलय को समझना ही आनापान - योग है । श्वासधारा जैसी भी चल रही हो, उसे यथाभूत जानना होता है, उसमें किसी प्रकार का आरोपण नहीं करना होता है। न किसी मूरत का, न सूरत का, न मंत्र या शब्द या ऋचा का । कोई आरोपण किए बिना जैसी भी हमारी साँस आ-जा रही है, उसे होशपूर्वक जानते रहना ही आनापान - योग है । अगर श्वास गहरी चल रही है या ओछी चल रही है, लम्बी है या छोटी तो अनुपश्यना करने वाला साधक भलीभाँति जानता है कि श्वास किस प्रकार की चल रही है । सामान्य और साधारण श्वास का भी वह दृष्टा बन जाता है। जैसे सुथार जानता है कि उसे अपने औजारों को कितने प्रतिशत तक आगे या पीछे चलाना है। जैसे वह अपने औजार और उसके परिणाम के प्रति सचेत और जागरूक रहता है, ठीक उसी तरह अनुपश्यना करने वाला साधक भी अपनी श्वासों की स्थिति को जानता है । 70 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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