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टिकट है। हमने कहा स्वागत है। संयोग से तीसरे दिन ही उनके भाई का फोन
आया कि घर में चोरी हो गई है। सारा माल असबाब चला गया है। कहने लगीं- मैं क्या करूँ, जो तुम्हें वहाँ उचित लगे, करो। मेरे पास भी संदेशा आया है कि ऐसा हो गया है. आप उन्हें भिजवा दीजिए। मेरा फ़र्ज़ बना कि अगर ऐसी स्थिति है तो कहँ कि आप चले जाइए। मैंने कहा तो उन्होंने तुरन्त कहा- आप
और कहते हैं कि चले जाइए। मैं चौंका। वे फिर बोलीं- अरे प्रभु, आप भी क्या बात करते हैं, जो जाना था सो चला गया। मैं वहाँ रहती तो भी जा सकता था, अभी तो मैं जिस उद्देश्य के लिए आई हूँ, प्राणपण से उसी के लिए समर्पित रहूँगी।
वह साधिका वापस नहीं गई। सात दिन बाद जब वह जाने लगी तब केवल यही कहा- प्रभु, कुछ चीजें ऐसी थीं, जिनका मोह मैं नहीं छोड़ पाई, मैं उस चोर की आभारी हूँ कि वह जो कुछ भी ले गया, उसके कारण मेरा परिग्रह थोड़ा हल्का हो गया।
ऐसे भाव सभी के नहीं होते। व्यक्ति आतापी, संप्रज्ञाशील और स्मृतिमान होकर साधना-मार्ग पर आए। तभी वह साधना परिणाम देगी, किसी सच्चाई तक पहुँचाएगी, साधारण प्रकृतियों से ऊपर उठाकर असाधारण चेतना का स्वामी बनाएगी। अन्यथा वही पुरानी स्मृतियाँ उमड़ती रहेंगी। त्याग वह नहीं है, जो कह-सुनकर किया जाता है। स्वयं के बोध से किया गया त्याग वास्तविक और सार्थक त्याग है। इस तरह की अनुपश्यना हमारे लिए कल्याणकारी साबित होती है। राग-द्वेष से मुक्त होकर, वीतरागी, वीतद्वेष होकर जीने वालों की तमन्नाएँ, आरजू, भावनाएँ, कुछ अलग होती हैं। उनका नज़रिया, उनकी तितिक्षाएँ कुछ अलग होती हैं।
श्री भगवान हमें आतापी, संप्रज्ञाशील और स्मृतिमान बनाकर हमें साधना में प्रवेश दिलाना चाहते हैं। साधना में किस तरह आगे क़दम बढ़ाते हुए हमें ले जाएँगे, आज हम अगला सूत्र लेते हैं- 'यहाँ कोई अरण्य में वृक्ष तले या शून्यागार में जाकर शरीर को सीधा रख, मुख के ऊपरी भाग पर स्मृति प्रतिष्ठापित कर, पालथी मारकर बैठता है। वह स्मृतिमान हो साँस लेता है, स्मृतिमान हो साँस छोड़ता है। वह लम्बा साँस लेते हुए भली प्रकार जानता है कि मैं लम्बा साँस लेता हूँ और लम्बा साँस छोड़ते हुए भली प्रकार जानता है कि मैं लम्बा साँस छोड़ता हूँ। वह ओधा साँस लेते हुए भली प्रकार जानता है कि मैं 164
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