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ओधा साँस लेता हूँ और ओधा साँस छोड़ते हुए भली प्रकार जानता है कि मैं ओधा साँस छोड़ता हूँ। वह सीखता है कि मैं सारी काया के प्रति संवेदनशील होकर साँस लूँगा, मैं सारी काया के प्रति संवेदनशील होकर साँस छोडूंगा। वह सीखता है कि मैं काया के संस्कार को प्रश्रब्ध अर्थात् शांत करके साँस लूँगा, मैं काया के संस्कारों को प्रश्रब्ध अर्थात् शांत करके साँस छोडूंगा।' ___साधना और समाधि का प्रवेश द्वार है- आनापान-सती । सती अर्थात् स्मृति और आनापान है- आना और अपान यानी जाना । साँसों के आने और जाने के प्रति अपनी स्मृति और सचेतनता को पुनः-पुनः लगातार साधने का नाम ही ‘आनापान-सती' है। अपनी भाषा में हम इसे 'आनापान-योग' कह सकते हैं अर्थात् आती-जाती श्वासों के प्रति आत्म-जागरूक होकर ध्यान करना 'आनापान-योग' है । हम बीस मिनिट के साथ अपने आनापान की साधना शुरू करें और अब बुद्ध के इस कथन के रहस्य को समझें। पहली बात- साधक स्वयं को अरण्य में, शून्यागार में या वृक्ष तले ले जाकर बैठे अर्थात् व्यक्ति स्वयं को एकान्त में ले जाए।
दूसरी बात- शरीर को सीधा रखकर मेरुदंड, कमर, गर्दन सीधी रखकर बैठे। अन्यथा निद्रावस्था हावी हो सकती है। अतः जब तक जागरूकता रह सकती है तब तक अनुपश्यना कीजिए । जब शिथिलता महसूस हो तो ध्यान का आडम्बर न करें और खड़े हो जाएँ। अनुपश्यना करते हुए शरीर में हलन-चलन न हो, देह का कोई भी अंग हिले-डुले नहीं। जब हमें चित्त को स्थिर करना है तो पहले काया को स्थिर करें। प्रश्न है क्यों न हिले-डुलें, क्योंकि हमारे शरीर में, काया के लोक में कब, कहाँ, कौनसी प्रकृति का उदय होगा, हमें उसके प्रति जागना है, उसका साक्षी होना है। हिलने-डुलने पर उस उदयशील प्रकृति को समझ नहीं पाएंगे और अनुपश्यना ठीक से साध नहीं पाएंगे। जब हमें लगे कि घुटने ऊपर उठना चाहते हैं, तब वही क्षण होता है कि वहाँ प्रतिकूलता का वेदना का, दुःखद अहसासों का घनत्व जहाँ हुआ, वहाँ उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति करें, पर उससे पहले हमने हिलना-डुलना शुरू कर दिया। अब ध्यान बँट गया, अनुपश्यना बँट गई, परिणाम से हम फिर दूर हो गए।
तीसरी बात- मुख के ऊपरी भाग पर स्मृति प्रतिष्ठापित करें। अनुपश्यना कहाँ करें- यूँ तो हम शरीर के किसी भी अंग पर- पेट (नाभि), हृदय, नाड़ियाँ कहीं भी ध्यान कर सकते हैं, लेकिन हमारे मन और बुद्धि के सबसे निकट
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