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पैसों में नहीं तौला जा सकता। मुझे अस्तित्व के आनन्द का पुरस्कार मिलता है। मुझे सत्य से संवाद करने का, उसके सान्निध्य में जीने का जो अवसर मिलता है, उसे धन से तौला नहीं जा सकता, वह तो अमूल्य है। वह पहरेदार बालशेम की बातों से अत्यधिक प्रभावित हुआ और पूछा- क्या मैं भी ऐसी चौकीदारी कर सकता हूँ ? बालशेम ने कहा- ज़रूर, बल्कि तुम तो मुझ से भी अच्छी चौकीदारी कर सकते हो, क्योंकि मुझे तो अपनी चौकीदारी को साधना पड़ा है और तुम्हें तो यह पहले से ही आती है। बस फ़र्क यह है कि अभी तक तुमने आँखें खोलकर चौकीदारी की, अब पलकें झुकाकर अपने भीतर की चौकीदारी करनी होगी और पल-पल जागकर देखना होगा कि कौन भीतर आ रहा है और कौन भीतर से बाहर जा रहा है। कब कहाँ किस चीज़ का उदय हो रहा है और कब कहाँ किस चीज़ का विलय हो रहा है। स्वयं के प्रति जागरूक होना होगा।
___ यह सचेतनता है। स्मृतिमान होना है। प्रत्यक्ष अनुभूतियों के प्रति जागरूकता है। सड़क पर चल रहे हैं तो जागरूक होकर चलने में ही ढंग से चल पाएँगे अन्यथा दुर्घटना घट सकती है। जागरूकतापूर्वक खाना खाने पर ही अपने गालों को बचाया जा सकता है। जागरूकतापूर्वक बोलने से ही लड़ाई-झगड़े से बच सकेंगे। ऐसे ही जागरूकतापूर्वक करने पर ही हम ध्यान ढंग से कर पाएंगे। प्रमाद और जागरूकता दोनों आपस में विरोधी हैं, दुश्मन हैं। साधना का प्रवेश-द्वार अप्रमाद-दशा है। इसीलिए पहले जिन्हें साधना करनी होती थी, वे घर-गृहस्थी त्याग कर संन्यासी बन जाते थे, क्योंकि गृहस्थी में रहकर बाहर के निमित्तों से अप्रभावित रहना मुश्किल है। गृहस्थी के निमित्त हमारी आत्मसाधना में बाधक बन जाते हैं। संप्रज्ञाशीलता में बार-बार अवरोध उत्पन्न होता है। इसीलिए ध्यान रखें कि जब साधना-शिविर में आएँ तब घर को बिल्कुल ही भुला दें। ऐसे रहें मानो आपके लिए वे और उनके लिए आप हैं ही नहीं। तभी तो गुरु गोरखनाथ ने कहा- मरौ हे जोगी मरौ । मरोगे, तभी अमृत को उपलब्ध कर पाओगे । जब तक प्रपंचों में उलझे रहोगे, तब तक स्वयं से वंचित ही रहोगे। राग-द्वेष से मुक्त होकर अपनी साधना में लीन होना है। राग-द्वेष से मुक्त होने का अर्थ ही यही है कि अब न कोई व्यापार, न पत्नी, न पति, न माता-पिता, न घर, न ज़मीन-जायदाद ।
हमारी एक साधिका बहन हैं, वे हमारे पास आई हुई थीं। उन्होंने आते ही बता दिया था कि वे सात दिन हमारे पास रहेंगी। आठवें दिन वापसी का
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